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________________ | गाथा: ६१ लोकसामान्याधिकार विशेषार्थ :-किसी भी संख्या को तीन बार परस्पर मुणा करने से दो संख्या आती है, वह धनधारा की संस्न्या कहलाती है। जैसे-१x१x१ = १ २४२४२-८, ३४३४३-२० ४४४२४=६४: ५५५-५-१२५ आदि। इस प्रकार अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञान के अध भाग का घनमूल प्राप्त होता है। केवलज्ञान का अर्घभाग धनस्वरूप हो है । केवलज्ञान के अभाग का घनमूल निकाल कर उसके ऊपर एक एक स्थान चढ़ते हुए घनमूल के जो स्थान प्राप्त होते हैं उन्हें केवलज्ञान के अाग के घनमूल में जोड़ देने से आसन्नधन प्राप्त होता है । इस आसन्नघनमूल का घन करने से जो स्थान प्राप्त होता है, वही इस धारा का अन्तिम स्थान है । आसन्नघनमूल से यदि एक अंक भी अधिक ग्रहण किया जाएगा तो उसका धन केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक हो जायगा अतः आसन्नघनमूल से आगे ग्रहण नहीं करना चाहिये । अंकसंदृष्टि :-१.८, २७, ६४, १२५ .............. ... इस प्रकार अनंत धनस्थान आगे जाकर केवलज्ञान ( ६५५३६ ) के आधे ( का धनमार ( २ प्राप्त होगा। इसके कपर एक एक स्थान चढ़ते हुए ३३, ३४. ३५, ३६ ३७, ३८, ३९ और ४० इन आठ स्थानों को ३२ में जोड़ देने पर (३२.८ ) ४० घनमूल प्राप्त हुआ। यही आमनघनमूल कहलाता है । इसका धन ( ४०x४० ४०) ६४००० होता है। यह धनधारा का अन्तिम स्थान है। यदि (४० आसनघनमूल के आगे एक अंक अधिक ( जैसे ४१ ) ग्रहण कर लिया जाए तो उसका घन ( ४१४४१x१) ६८१२१ प्राप्त होगा जी केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक हो जाएगा; किन्तु ऐसा हो नहीं सकता अतः आसन्नघनमूल ४० का धन ६४००० ही धनधारा का अन्तिम स्थान है। ६४००० को आसन्नघन कहते हैं और इसके घनमूल (४० ) को आमनघनमूल कहते हैं। इस घनधारा के समस्त स्थान केवल जान के आसन्नघनमूल प्रमागा ही होते हैं। अथ केवल दलस्प धनात्मकत्वे उपपनि पूर्वार्धन दर्शयन्न तरार्धनाधनधारामाह समकदिसल विकदीए दलिंद घणमेस्थ विसमगे तुरिए । अघणस्स दु मन्च वा विषणपदं केवलं ठाणं ॥ ६१ ।। समकृतिवाला विकृती दलिते घनः अत्र विषमके तुरिये । अघनस्य तु सर्व वा विषनपद केवलं स्थानम् ॥ ११ ॥ समक। द्विरूपवर्गधारायां समकृतिशलाके वर्गराशी बलिते घनो जायते । यथा षोडशकारिक १६ । ६५ -- | १८-1 व धाराय विषमतिशलाके वर्गराको चतुर्भागे गृहीते घनो मायते । या चतुष्कादिक । ४ । २५६ । ४२ - । एवमुक्तयायेन केवलनानस्य वर्गशलाकामां समत्वातस्मिन् केवलनाने पलिते धनो भवतीति सिक्षम् । तत्समरवं कर्ष जायत इति विमुच्यते । केवलशामस्य वर्गालाकाराशेदिल्यवर्गधारापामेवोत्यम्मस्वाद । एतदपि कुत इति चेत् "मवरावाइयलीवासलागा तयो सगडमियो" इति पुरस्तावक्ष्यमाणत्वात् । अघनधारायाः सर्वकारावर प्रक्रिया अयं विशेषः, विधनपर्व धनम्यान
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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