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पाथ] 1 ३८८
ज्योतिलोकाधिकार
में भाते हैं, क्यों त्यों मन्द गमन करते हैं । इस प्रकार विषम वोथियों को भी समानकाल में पूरा कर लेते हैं ।। ३८७॥
विशेषार्थ :-- अभ्यन्तर आदि वीधियों की परिधियों का प्रमाण समान नहीं है। अर्थात् वे हीनाधिक प्रमाण को लिये हुए हैं। दो मयं प्रत्येक बीयो को ६० मुहूर्त में अपने सञ्चार द्वारा समान कर लेते हैं, अतः प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समान काल में होनाधिक प्रमाण बाली परिघियों को कैसे पूरा करने हैं ? समाधान में आचार्य कहते हैं कि सूर्य चन्द्र का नामन अभ्यन्तर वीथी में अत्यन्त मन्द है, किन्तु जैसे जैसे दे द्वितीयादि वीथियों में पहुँचते जाते हैं, वैसे वैसे उनकी गति क्रमशः तेज होती जाती है। इसी प्रकार बाह्य वीथी में सबसे तेज गति है। वहाँ से वे जैसे जमे भीतर प्रवेश करते जाते हैं, वैसे वैसे उनकी चाल क्रमशः मन्द होती जानो है । इस प्रकार समान समय में वे दोनों विसदृश चीथी के प्रमाण को पूरा करते हैं। अथ तयो रविवापिनोगमनप्रकारं पुनधान्तमुखेनाह
गयहय केसरिंगमणं पढमे मज्झन्तिमे य पुरस्स । पडिपरिहिं रविससिणो मुहत्तगदिखेचमाणिज्जो ॥३८८।। गजहयकेसरिगमन प्रथमे मध्ये अन्तिम च सय॑स्य ।
प्रतिपरिधि रविशशिनोः मुहतगतिक्षेत्रमानेयम् ।। ३८८ ।। गय । गबगममं हयगमनं केसरिगमन प्रथमे मध्यमे प्रतिमे , पपि सूर्याचन्द्रमसोभवति । इदानी रविशशिनोः प्रतिपरिधि मुहर्तगतिक्षेत्रमानेयं । कमिति चेत् । षष्टिमुहाना ६० मेतावति क्षेत्र ३१५८६ एकमुह प कियत क्षेत्रमिति सम्पातेलानेतव्यं । सूर्यस्याम्यन्तरपरिषौ मुहूत गसिरिय ५२५१३३ बन्नस्याप्येवं राशिकविषिनानेतस्य । चनस्य परिधिसमापनकाल: ६२३ समच्छेवेनानयोर्मलने प्रमाणराशि१३:२५ फल ३१५०८६ इच्छा मुहत १ लम्प ५०७३ शेष पाय || ३५ ॥
रविशशि के गमन प्रकार को दृष्टान्त द्वारा कहते हैं :
गायार्थ :-सूर्य और चन्द्र प्रथम ( अभ्यन्तर ) वीथी में हाथोवत्, मध्यम वीथी में घोड़े वत् और अन्तिम ( बाह्य ) वीथी में सिंहवत् गमन करते हैं। इनकी प्रत्येक परिधि में एक मुहर्त का गति क्षेत्र निकालते हैं ।। ३८८ ॥