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________________ पाया। ४१८ ज्योतिलोंकाधिकार लामो उत्तर। ता एता प्रावृरायः उत्तरायणे पश्चम् वर्षेषु माघमासेपु पूर्वपरिभिरिह सूर्यस्य भरिणताः । उक्तमाधाना रचनोबारविषानमुच्यते । पञ्चवर्षात्मकयुगप्रारम्भस्य दक्षिणायनस्य पश्चतु प्रावणमासेषु उक्ताः एकत्रिशसिथीस्तत्र तत्र संस्थाप्य प्रथमपापरणे कृष्ण १५ शु १५ १ द्विप्रा-कृष्प = १५१ मा-शुक १५ शु १० । चा - ६ शु १५७ । पं०-भा==१२ - १५ गु = ४ उपरायणस्य पञ्चसु माघमासेष एकत्रिंशत्तिथीः उक्तशामेण तत्र तत्र संस्थाप्य प्रथममाघमासे 3-६ शु १५ % ७ द्वि-मा-शु-१२ -१५ शु । =मा = क १५ शु=१५ ।। च-मा-कृ ३ = १५ -१३ । पं०नमा-शु - ६ -१५ शु=१० बक्षिणायने मध्ये भाजपवादिमासेषु उत्सरापरणे मध्यगतफाल्गुनाविमासेषु प्रावावेकहीनकामेण १४ । १३ । १२ । ११ अन्ते एकोत्तरकमेण २।३ । ४ । ५ एकत्रिशतिषिषु स्थापितासु तस्मिन्मासे तत्र तत्रायने वाषिकदिनान्यागच्छन्ति । एवं क्रमेण पञ्चवर्षात्मके युगे द्वावधिकमाती भवतः ||४१५॥ उपयुक्त गाथाओं में कहे हर अर्थों का सङ्कलन { जोड़ ) करते हैं गापार्य :-जो आवत्तियो उत्तरायण में पांच वर्षों के पांच माघ मासों में होती हैं वे पूर्वाचार्यों के द्वारा सूर्य की कही गई है ।। ४१८ ।। विशेषार्थ :-वे सब आवृत्तियाँ उत्तरायण में पांच वर्षों के माघ मासों में पूर्व प्राचार्यों के द्वारा सूर्य की कही गई है उन्हीं गाथाओं को रचना के उद्धार का विधान कहते हैं पांच वर्षों के समुदाय को युग कहते हैं। प्रधम युग के प्रारम्भ से युग की ममाप्ति पर्यन्त निथि आदि की जिस प्रकार की रचना है, वैसी ही रचना दूसरे तीसरे मादि युमों में भी है। प्रत्येक युग में दक्षिणायन का प्रारम्भ पांचों धावण मासों में, और उत्तरायण का प्रारम्भ पाचों माघ मासों में ही होता है, तथा दक्षिणायन के बीच में भाद्र, आसोज, कातिक आदि मास आते है, और उत्तरायण के बीच में फाल्गुन, चैत्र आदि मास आते हैं । इन प्रत्येक मासों की ३१, ३१ निधियो स्थापित करना चाहिये, क्योंकि वैसे तो एक मास में ३० ही दिन होते हैं, किन्तु "इगिमासे दिणबड्डी" गाथा सूत्र ४१० के अनुसार एक दिन में एक मुहूत को वृद्धि होती है, अत: एक माह में एक दिन की वृद्धि हो जाती है। इसलिये प्रत्येक माह में ३१ दिन की स्थापना की गई है। एक मास में एक दिन की वृद्धि होने से बारह मासों में १२ दिनों की और पाच वर्षों में १० दिन अर्थात् दो माह की वद्धि होती है। इसका चित्रण निम्न प्रकार है [ कृपया चित्र अगले पृष्ठ पर देखिए ।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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