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________________ ३७८ arcti ברה. FAT त्रिलोकसाय TWANT FAMI गर 1931/2 13432 w 我 S Zint अथ दक्षिणोत्तरायण प्रारम्भेषु नक्षत्रानयनप्रकार माह 1511257 'cmpi.. 116234. गाथा : ४१९ रुणावगुण सदसदं तु सहिद इगिवीसं । तिघणहिंद व्यवसेसा अस्मिणियहुदीणि रिक्खाणि ।। ४१९ ।। रूपनावृनिगुणं एकाशीतिशतं तु सहित एकविंशत्या । ० त्रिषहृते अवशेषाणि अश्विनीप्रभूनोति ऋक्षाणि ।। ४१६ ।। करा रूप म्यूना० दृश्या गुणितं यद्येकाशीत्युत्तरशतं १८१ एकस्मिक होने शुन्यम शिष्यत इति खेन गुपितः अमिति शून्यमेव भवति । एकविंशत्या सहितं २१ एतम्सिन त्रिघम २७ हृते सति प्रवशेषं पश्विनोप्रभृतितः गुण्यमानं दक्षिणायनप्रारम्भ श्रावणमासे क्षणं भवति । एवं वक्षितापने इतर चतुर्षु भाषणेषु उत्तरायणे पञ्चसु माधेषु तत्र तत्र नक्षत्रायातव्यानि ॥ ४१६ ॥ दक्षिणायन तथा उत्तरायण के प्रारम्भ में नक्षत्र प्राप्त करने का विधान : गाथायें :- एक सौ इक्यासी को एक कम विवक्षित आवृत्ति से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें इक्कीस मिला कर तोन के घन ( २७ ) का भाग देने पर जो शेष रहे, अश्विनी को भावि लेकर उतने ही नम्बर का नक्षत्र होता है ।। ४१९ ।। विशेषार्थ :- जैसे मान लीजिए प्रथम आवृत्ति विवक्षित है, तो एक में से एक घटाने पर शून्य शेष रहा। इसको १८१ से गुरित करने पर शून्य हो प्राप्त होगा । इस शून्य गुणनफल में २१ मिलाने पर योगफल २१ प्राप्त हुआ। इसमें तीन के घन (३४३४३ ) - २७ का भाग देने पर वह जाता नहीं है, तब २१ ही शेष रहे । यथा - ( १ - १०० x १८१=०+२१=२१ ÷ २७-२१ शेष ) इस प्रकार प्रथम आवृत्ति में अश्विनी में लेकर २१ व नक्षत्र उत्तराषाढ़ा समझना चाहिए. किन्तु यहाँ उत्तराषाढ़ा के स्थान पर अभिजित नक्षत्र ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यद्यपि नक्षत्र अट्ठाईस हैं, तथापि जहाँ नक्षत्रों की गणना आदि करते हैं, वहाँ २७ का ही ग्रहण किया जाता है, अभिजित् का नहीं क्योंकि अभिजित् का साधन सुक्ष्म है। यहाँ प्रथम आवृत्ति में स्थूल रूप से - ४
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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