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पाया । ३२४-३२५
ज्योतिकासिकाय
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गाथा :- मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त ही मनुष्य हैं, जो मानुषोत्तर पर्वत को उल्लङ्घन करने की शक्ति में हीन हैं। मानुषोत्तर पर्वत से आगे स्वयंप्रभ पर्वत पर्यन्त जघन्य भोगभूमियां तियं रहते हैं ।। ३३३ ||
शेषार्थ :- मनुष्यों में मानुषोत्तर पर्वत को उल्लङ्घन करने की शक्ति नहीं है। अतः मनुष्य मानुषोत्तर पर्यन्त ही है। पर्वत पर्यन्त जघन्य भोगभूमि के तियं ही पाये जाते हैं।
कम्माणपविद्धो बाहिरभागो सुपहगिरिम्स 1 वओगाइणजुत्ता नसजीवा होति तत्थेव || ३२४ ।।
कर्माविनिप्रतिबद्धो वाह्यभागः स्वयम्प्रभगिरेः । वशवगानयुक्ताः श्रमजीवा भवन्ति तथैव ॥ ३२४ ॥
कम्माथ | छापामात्रमेवाऽर्थः ॥ ३२४ ॥
गाथायें :- स्वयंप्रभ पर्वत का बाह्य भाग कर्मभूमि सम्बन्धी है, और उत्कृष्ट अवगाहना वाले बस जीव यहाँ ही होते हैं ।। ३२४ ।।
विशेषार्थ :- असंख्यात द्वीपों में स्वयम्भूरमण अन्तिम द्वीप है, इस द्वीप के वलपन्यास के बीचों बीच एक स्वयंप्रभ नामक पर्वत है। इस पर्वत के बाह्य भाग में कर्मभूमि की रचना है, और उत्कृष्ट अवगाहना वाले यस जीव वहीं पाये जाते हैं ।
अथैतद्गाथापराक्तोत्कृष्टावगाहन मेकेन्द्रियावगाह्नपुरस्सर माह
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अधिसहस्से वारस तिचउत्थेक्कं महत्स्यं परमे । संखे गोम्ही भमरे मच्छे बरदेहदीहो दु || ३२५ ।।
अधिकमस्र द्वादश त्रिचतुर्थमेकं सहस्रकं पद्मं । सङ्घ ग्रंध्ये भ्रमरे मत्स्ये वरदेहृदीर्थं तु ।। ३२५ ।।
मयि । साविक सहस्रयोजनानि द्वावशयोजनानि योगमत्रिचतु एकयोजन सहस्रयोजनं
यथासंख्येमधे शङ्ख मे सहस्रपद्यात्यत्र सविशेषे इत्यर्थः अमरे, महस्ये वरदेवध्य
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स्वाद ।। ३२५ ।।