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त्रिलोकसार
गाथा : २२-३२३ साम्प्रतं मनुष्यक्षेत्रतरविभागस्य कर्मभोगभूमि विभागस्य च सीमानमानयलोः पर्वतयोः स्वरूपं निरूपयन तद्विभागमेव समर्थयित गायात्रयमाह
पुक्खरमयंभुरमणाणद्वे उत्तरमयंपदा सेला । कुंडलरुचगद्ध वा सच्चं पुण्यं परिक्खिधा ।।३२२।। पुष्करस्वयम्भुरम गयोरर्धे उत्तरस्वयंप्रभो शैली ।
कुण्डल रुचकाध वा सर्वे पूर्व परिक्षिप्ता: ।। ३५२ ।। पुरसर । पुष्कराचे स्वयम्भूरमरणार्धे च यथासंख्यं मानुषोसरस्वयंप्रभी शैलौ भवतः कुण्ठलरुचकामिव कुण्डलपिरिः बसका चकपिरियथेस्यर्थः । एते सबै पर्वता: पूर्व स्वस्थाम्यातरदोपसमुद्रान् परिमिप्य सिन्ति ॥ ३२२ ॥
छाब मनुष्य क्षेत्र और इतर क्षेत्र के विभाग का, कर्मभूमि और भोगभूमि के विभाग का तथा मर्यादा (सीमा) को प्राप्त कराने वाले पर्वतों का स्वरूप निरूपण करते हुए, उन्हीं के विभाग को रतु करने के लिए तीन गाथाएं कहते हैं
. गाथार्य :-जिस प्रकार कुण्डलवर द्वीप के अधभाग ( मध्य ) में कुण्ड लगिरि तथा चकवर द्वीप के मध्य में रुचकगिरि है, उसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के वलयध्यास के बीच में मानुषोत्तर पर्वत है और अन्तिम स्वयम्भूरमा द्वीप के बल यन्यास के अधंभाग में स्वयम्प्रभ पर्वत है। ये सब पर्वत अपने अपने अभ्यन्तर द्वीप समुद्रों को घेरे हुए हैं ।। ३२२ ।।
विशेषार्थ :- जिस प्रकार कुण्डलवर द्वीप के अधंभाग में कुम्हलगिरि और रुचकवर द्वीप के अर्धभाग में पचकगिरि हैं, उसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के अर्धभाग में मानुषोत्तर पर्वत और स्वयम्भूरमण द्वीप के अधंभाग में स्वयंप्रभगिरि हैं। ये पर्वत अपने अपने अभ्यन्तरवती सर्व द्वीप समुद्रों को घेरे हुए हैं।
मणुसुत्तरोत्ति मणुसा मणु सुत्चरलंघसत्तिपरिहीणा । परदो सयंपहोत्ति य जहण्णभोगावणीतिरिया ।। ३२३ ।। मानुषोत्तरान्त मनुष्याः मानुषोत्तरल शक्तिपरिहीनाः ।
परतः स्वयम्प्रभान्तं च जघन्यभोगावनितियश्चः ।। ३२३ ।। मातु । मानुषोसरपर्वतपर्यन्तं मनुष्याः मानुषोत्तरलमशक्तिपरिहोणाः । अस्माव परत: स्वयम्नमाचलपर्यम् जायभोगायोतिर्यश्वो भवन्ति ॥ ३२३ ॥