SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिलोकमार गया : १२५ जगणी प्रमाण भुजा और कोटि का परस्पर गुणा करने से कुछ कम जगत्प्रतर गुणित ६० हजार योजन क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।। १२७ । १४२ विशेषार्थ :- -लोक के नीचे तीनों पवनों का बाहुल्य ६० हजार (२०+२० | २० हजार ) योजन है। इनको लम्बाई चौड़ाई जगच्छं रणी प्रमार है। जगच्छ्रेणी की दक्षिणोत्तर चोड़ाई का नाम भुजा तथा पूर्व पश्चिम चोड़ाई का नाम कोटि है। भुजा और कोटि ( जगच एणी x जगच्छ्रेणी ) का परस्पर गुणा करने से जगत्तर की प्राप्ति होती है । लोक की दक्षिणांतर चौड़ाई (भुजा) सर्वत्र ७ राज है अतः भुजा तो होन नहीं है किन्तु पूर्व पश्चिम चौड़ाई ( कोटि ) में हानि होने से कोटि में कुछ हीनता है, इसलिए जगत्प्रतर कुछ कम है । इस कुछ कम जगत्प्रतर की ६० हजार योजनों से गुणित करने पर लोक के नीचे तीनों पवनों में अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल, कुछ कम जगत्तर ६० हजार योजन प्राप्त होता है । अयं तदुपरि वायुक्षेत्रफलनयनमाह किंणरज्जुवामोजमसेदीदीहरं हये बेहो । जोणससह सत्तमखिदिध्वरे ६ ।। १२८|| किचिडून रज्जुव्यासः जगच्छू णिदेयं भवेत् वेधः । योजनसह सप्तमक्षितिपूर्वपरे च ।। १२५ ।। किए। किञ्चिन्यूमरज्जुपासः १ जगच्छ्राखि ७ वंध्यं भवेत् । वेधः योजनवहि सप्तमपृथिया: पूर्वापरद्वयोः क्षेत्रयोः फलं । भुजकोटियमेत्यादिना एकभागस्यताति । ६०००० दुर्भागयोः किमिति सम्मान वापम् ॥ १२८ ॥ अधोलोक के एक राजू ऊपर तक वायुरुद्ध पार्श्वभागों में पवनों का क्षेत्रफल - गाथार्थ :- तीनों पवनों का व्यास (चौड़ाई) कुछ कम ( ६० हजार योजन कम ) एक राजू है । उनकी लम्बाई जगच्छ्रसी (७ राजू ) प्रमाण है तथा सप्तम पृथ्वी पर्यन्त पूर्व पश्चिम ६० हजार योजन वेध ( मोटाई । है । १२८ ॥ विशेषार्थ :- प्रधोलोक के एक राजू ऊपर के पार्श्व भागों तक दोनों पवनों की चौड़ाई कुछ कम एक राजू प्रमाण है । दीर्घता ( लम्बाई ) जगच्छ्रेणी प्रमाण ( ७ राजू ) है | वेध ( मोटाई) पूर्व पश्चिम सप्तम पृथ्वी पर्यन्त ६० हजार योजन है । इसका क्षेत्रफल निकालने के लिए भुजा ( जगच्छ्रेणी ७ राजू ) को कोटि ( १ राजू ) से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें वेध ( ६० हजार योजन ) का गुणा करने में एक पाद भाग का क्षेत्रफल प्राप्त हो जाता है। एक पार्श्वभाग का क्षेत्रफल इतना है तो दोनों पाव भागों का कितना होगा ? इस प्रकार वैराशिक करना चाहिए । a =
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy