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________________ ४०. त्रिलोकसार शुकमहाशुकगतः शतारसहस्रारगो हि तवस्तु । आनतप्राणतारणाच्युतगा भवन्ति कल्पा हि ॥ ४५३ ।। सोहम्मी | सोधज्ञानसनत्कुमार माहेन्द्रका चरवारः कल्पा: ब्रह्मब्रह्मोत्तरको द्वौ मिलित्वा एकेन्द्रापेक्षया एक कल्पः लान्सदकापिष्ठावपि तथा पष्ठकरूपः ॥ ४५२ ॥ गाथा : ४५३ - ४५४ सुक्कमहा | शुक्रमहाशुक्रावपि तथा एकः कल्पः शतारसहस्रारकावपि तपं कः कल्पः । ततस्तु मानसधारणतारणाच्युता इति चत्वारः कल्पा भवन्ति ॥ ४५३ ॥ उन विमानों के कल्प और कल्पातीत स्वरूप दो भेद करके सर्व प्रथम कल्पों के नाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं : गावार्थ:-सोधर्मेशन, सानत्कुमार माहेन्द्र ( ये चार ), ब्रह्मब्रह्मोत्तर (पाँचवाँ ), लाग्तव कापिष्ठ ( छटा ), शुक्र महाशुक सातवाँ ), शतार सहसार ( आठव), श्रानत प्रारणत, आरण और अच्युत ( के एक एक ) कल्प होते हैं । ४५२, ४५३ ॥ विशेषभ्यं :- सौधर्मं, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र इनके एक एक इन्द्र हैं। अतः ये चार कल्प हुए। ब्रह्मब्रह्मोत्तर दोनों का मिलकर एक इन्द्र है अतः यह एक ही (पाँचवाँ ) कल्प हुआ । इसी प्रकार लान्तव कापिष्ठ छटा, शुक्रमहाशुक्र सातव और शतार सहस्रार आठवा कल्प है, क्योंकि इन दो दो का मिलकर एक एक ही इन्द्र होता है। आनत प्राप्त, आरण और अच्युत ये चार कल्प है, क्योंकि इनके एक एक इन्द्र होते हैं । इदानीमिन्द्रापेक्षया कल्पसख्यामाह मज्झिमचउजुगलाणं पृथ्वावर जुम्मसु सेसेसु । सव्वत्थ होंति इंदा इदि बारस होंति कप्पा हु ।। ४५४ ।। मध्यमचतुयु गळानां पूर्वापरयुग्मयोः शेषेषु सर्वत्र भवन्ति इन्द्रा इति द्वादश भवन्ति कल्पा हि ।। ४५४ ।। मम । मध्यमचलानां पूर्व युग्मयोग ह्याला सवयोरे केन्द्रो । प्रपरयुग्मधीः महाशुक्रसहस्रारमोरे केटो । शेषेष्वष्टसु कल्पेषु सर्वत्रेा भवन्ति । इसोन्द्रापेक्षया कल्पा मावश भवन्ति ।। ४५४ ॥ अब इन्द्र अपेक्षा कल्पसंख्या कहते हैं। : गावार्थ :- मध्य के चार युगलों में से पूर्व और अपर के दो दो युगलों में एक एक इन्द्र होते हैं। शेष चार युगलों के आठ इन्द्र होते हैं। इस प्रकार बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह कल्प होते हैं । ४५४ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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