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५ वैमानिक लोकाधिकारः
अथानुकमे रवी मानिकलोकं व्यावयितुकामस्ताव द्विमान संख्या प्रतिपादनार्थं तेष्ववस्थितानामविनश्वराणां जिनेश्वरगृहाणां प्रमाणपूर्वकं प्ररणाममाह
चुलसीदलक्खचाणउदिसहस्से तव तेवीसे ।
सव्वे विमानसभगेजिदि गेहे णमंसामि || ४५१ ।। चतुरशोतिलक्षसप्तनवतिसहस्रान् तथैव त्रयोविंशान् । विभावसनानजिहान नमस्यामि ।। ४५१ ॥
तुलसीदि । चतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रान् तथा त्रयोविंशतिसहितान् सर्वान् विमानसमानजिन्हामायामि ।। ४५१ ।।
अब अनुक्रम प्राप्त वैमानिक लोक का वर्णन करने की इच्छा रखने वाले आचार्य सवं प्रथम विमानों की संख्या का प्रतिपादन करने के लिए उन विमानों में अवस्थित अविनश्वर जिन मन्दिरों का प्रमाण पूर्वक प्रणाम कहते हैं।
गाथा: - चौरासी लाख मध्यान्नवे हजार तेईस सर्ग विमानों की संख्या प्रमाण जिन मन्दिरों को में नेमिचन्द्राचार्य ) नमस्कार करना है ।। ४५१ ॥
विशेष :-- ऊध्यलोक में सम्पूर्ण विमानों की संख्या ८४९७०२३ है । प्रत्येक विमान में एक एक जिन मन्दिर है, अतः लोकके सम्पूर्ण जिन मन्दिरों का प्रमाण भी ८४३७०२३ है । उन सब विमानप्रमागम जिनमन्दिरों को नमस्कार करता हूँ ।
तानि विमानानि कल्पकल्पातीतत्वेन विकल्प्य सावरकल्पानां नामानि गाथाद्वयेनाह मोहम्ममाणमण कुमारमादिगा हु कप्पा हु | बारगो लतिका पिट्ठगो कट्टो || ४५२ ।। सुमहासुको मदरसहस्सारगो हु ततो दु । आणदपाणद आणअच्चु दगा होति कप्पा हु ।। ४५३ ।। सोध में शान सनत्कुमार माहेन्द्रका हि कल्पा हि ।
• ब्रह्मोत्तरको लान्तवकाविष्टको पष्ठः ॥ ४५२ ॥
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