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________________ पाथा : ६१-५२ लोकसामान्याधिकार एवमणतं ठाणं गिरंतरं गमिय केवलम्सेव । विदियपदविंदमंतं विदियादिनमूलगुणिदसमं ।।८।। एवमनन्तं स्थान निरन्तरं गस्वा केवलस्यैव । द्वितीयपदवृन्दमन्तो द्वितीयादिममूलगुरिणतसमः ।।८१॥ एकमवंत । एवं काशराशेरुपर्यनन्तस्थान निरन्तरं गया केवलज्ञानस्य द्वितीयमूलधन उत्पद्यते स एव हिरूपनारायामन्तः। तत् कियवित्युक्ते द्वितोपादिममूलयो; परस्पर गुरिणतरान्ति समः ॥५१॥ गापार्य :-इसप्रकार निरन्तर अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूलका धन उत्पन्न होता है । यही द्विरूपधनधाराका अन्तिम स्थान है। यह द्वितीय वर्गमूल और प्रथम वर्गमूलका परस्पर गुणा करने मे उत्पन्न हुई राशि बराबर है ।।१।। विशेषार्थ :-सर्वाकाश राशि के आगे निरन्तर अनन्तस्थान मागे जाकर केवल ज्ञानके द्वितीय धर्ममूलका घन उत्पन्न होता है। यही द्विरूपघनघाराका अन्तिम स्थान है। वह केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूल और प्रथम वर्गमूल का परस्पर गुणा करने से उत्पन्न हुई राशि के सदृश है । यथा- केवलज्ञान स्वरूप ६५५३६ के द्वितीय वर्गमूल १६ का घन ४०६६ है और ६५५३६ के प्रथम वर्गमूल २५६ में द्वितीय वर्गमूल १६ का गुणा (२५६ ४१६) करने से भी ४०९६ की प्राप्ति होती है । अर्थात् केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूलका घन = केवलज्ञानका प्रथम वर्गमूल x द्वितीयवर्गमूल है । एतदेवान्तस्थानं कथमित्याशङ्कायामाह - चरिमस्स दुचरिमस्स य व घणं केवलब्बदिक्कमदो । तम्हा विरूवहीणा मगवम्गसला इवे ठाणं ॥८२।। चरमस्य विचरमस्य च नैव घनः केवलव्यतिक्रमतः । तस्मात् द्विरूपहीना स्वकवर्गशला भवेत् स्थानम् ॥२॥ परिम। बरमराशेविचरमराशेश्च घनो नवान्तः । कुतः ? केवलमास्यतिकमो यस्माव। तस्मात्मानं पुनद्विरूपहोमस्वकोयवर्गशलाकामा भवेत् । अङ्कसंधिरम्यूह्या ॥२॥ केवलज्ञानका यही अन्तिम स्थान कैसे है ? गापा:-द्विरूपवर्गधाराकी चरम और द्विचरम राशिका धन, इस धारा का अन्तिम स्थान नहीं है । कारण कि इनका घन तो केवलज्ञानके प्रमाणसे अधिक हो जाएगा। इस धाराके समस्त स्थान, दो कम केवलज्ञान की वर्गशलाका प्रमाण हैं ॥२॥ . सर्बत्राकाशराणे (प)। .
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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