________________
७४
त्रिलोकसार
गाथा :६३-६४
विशेषार्थ:-द्विरूपवर्गधाराको चरमराशि केवलज्ञान है, और द्विचरमराशि केवलज्ञानका प्रथम वर्गमूल है। इन दोनों राशियों के घनको ग्रहण कर इस धाराका अन्तिम (चरम) स्थान नहीं होता । अर्थात इन दोनों को यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है । कारण कि इनके घन को ग्रहण करने मे केवलज्ञानसे अधिक प्रमाण वाली राषिकी प्राप्ति होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । जमे :-केवलज्ञान स्वरूप ६५५३६ का घन (६५५३६)' और ६५५३६ के प्रथम वर्गमुन्न २५६ का धन (२५३)। ये दोनों राशियों केवलज्ञानके प्रमाणको उल्लंघन करने वाली हैं। अत: द्विरूपचनधारामें इनका ग्रहण न करके केवलज्ञानके द्वितीय वर्गमूलका धन ग्रहण किया गया है। जैसे :- केवलज्ञान स्वरूप ६५५३६ का द्वितीय वर्गमूल १६ है, और इसका धन ०६६ है जो केवलज्ञानके भीतर है । यही इस धाराका अन्तिम स्थान है।
इस द्विरूपधनधारा के समस्त स्यान दो कम केवलज्ञानकी वर्गशलाका प्रभागा है। इस धाग का आदि स्यान ८ और अन्त स्थान केवलज्ञान के द्वितीय वर्गमूलका धन है तथा द्विम्पवर्गधाराके सभी मध्यम स्थान धन स्वरूप होकर इस धारा के मध्यम स्थान बन जाते हैं । इदानी द्विरूपघनाघनधारां गाथाष्टकेनाह -
सं जाण सिवाय धणाधणं अदुनिंदतब्बगां । लोगो गुणगारसला वग्गसलद्धच्छदादिपदं ।।८३।। तेउक्काइयजीवा वामलागतयं च कायठिदी । वग्गसलादिचिदयं ओहिणिबद्धं यरं खेत्तं ॥८४॥
तं जानीहि द्विरूपगतं धनाधनं अष्टबृन्दतद्वर्गम् । लोको गुणकारशला वर्गशलार्घच्छंदादिपदम् ॥३॥ तेजस्कायिकजोवा वर्गशलाकाश्यं च कायस्थितिः ।
वगंशलादित्रितपं अवधिनिबद्ध' वर क्षेत्रम् ।।८।। तंबाण । विरूपवर्गधारायां पो यो राशि: उक्तः तस्य तस्य घनाघन एवात्र पारायामित्यमु झम जानीहि । कथं बरतीति चेत् । प्राविरघन: ५१२ तदुपरि घनवर्गः २६२१४४ तदुपरि प्रसंख्यातस्यामानि गत्वा लोक उत्पद्यते । अस्य वर्गशलाकाविरत्रापतितस्वावनुक्त इत्यवतेयः । ततोऽसंख्यातस्यानानि गरबा गुणकारशलाकाराशिरस्पद्यते । स क इति वेद, लोकं विरलयिस्वा लोकमेव वस्था समस्त राशोनम्योम्यं गुणयित्वा एकवारं गुरिणत मिलि लोकमात्रशलाकाराशितो' रूपमपनये । पत्र गुणकारशलाका रूपोनलोकमात्रा भवन्ति । त पुनरप्यसंख्यात लोकमानं (=g) भन्योन्यारिणतराशिमेव विरलपित्वा तमेव दत्त्वा अन्योन्यं गुरिणतमिति प्राक्तनशलाकाराशिसः अपरं रूपमपनयेत् तत्र
१ पूर्ववत् एकं (प.)।