________________
वैमानिक लोकाधिकार
अब गुणस्थानमाश्रित्य देवतात्पद्यमानानारूपं गाथा
गाथा ५४५-१४६-५४७
परतिरिव । प्रसंता देश संपता था मावेनासयता देश संपलाः
परतिरिय देसमयदा उक्कस्सेणचुदोचि णिग्गंथा । णय अयद देसमच्छा गेवेज्जतोचि गच्छति ।। ५४५ || नरतियंख देशायता उत्कृष्टेनाच्युतान्त निम्रन्थाः । न च अयता देश मिथ्या सवैयान्तं छति गच्छन्ति ।। २४५ ॥
करते हैं :
—
नया न
छन्ति ॥ ५४५ |
गुणस्थानों का आश्रय कर देवों में उत्पद्यमान जीवों का स्वरूप हीन गाथाओं द्वारा
४६९
मस्तियंश्चोत्कृष्टेन च्युतपर्यन्तं गच्छन्ति । मिथ्यादृष्टयो पर परमप्रवे
गाथार्थ :- [ असंयत और ] देशसंयत मनुष्य तिर्यन अधिक से अधिक अच्युत कल्प तक, तर निस्य वंश संयत असंयत एवं मिथ्यादृष्टि मुनि अन्तिम ग्रैवेयक पर्यन्त जाते हैं ।। ५४५
विशेषार्थ :- असंयत सम्यग्दृष्टि और देशसंयमी मनुष्य एवं तिर्यच उत्कृष्टता से अच्युत कल्प अर्थात् १६ स्वर्ण पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । जो द्रव्य से निश्रभ्य और भाव से विध्यादृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि एवं देशसंयमी है, वे अन्तिम में वैयक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं ।
सम्बद्धोति सुदिट्ठी महन्वई भोगभूमिजा सम्मा | सोहम्मदुगं मिच्छा मरणतियं लावसा य वरं ।। ५४६ ॥
सर्वार्थान्तं सुदृष्टिः मद्दात्रती भोगभूमिजा सम्यचः ।
सोधर्मदिकं मिथ्या भवनत्रयं तापसाः च वरं ॥ ५४६ ।।
सट्टो । सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं सदृष्टिद्रव्य भावरूपेण महाव्रती पच्छति । भोननुमिनाः सम्यग्टष्टयः सोमं द्विक गच्छति न तत उपरि । भोगभूमिजा मिध्यादृष्टयो भवनत्रय' पान्ति न तल उपरि । पञ्चाग्न्यादिसाधकास्तः सा वरकृष्टेन भवनत्रयं यान्ति न तत उपरि । ५४६ ॥
गाथार्थ :- सम्यग्दृष्टि महाव्रती सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त, सम्यग्दृष्टि भोगभूमिज मनुष्य तिर्य सौधर्मेशन पर्यन्त और मिथ्यादृष्टि भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यन एवं तापसौ साधु उत्कृष्टता से मदनत्रय पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं । ५४६ ||
चरया य परिव्वाजा बह्मोस पदोचि आजीवा 1
दिसभचरादो चुदा ण केसवपदं नोति ।। ५४७ ।।