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पाया : २२३ से ५२५
वैमानिकलोकाधिकार
प्रय इन्द्रोत्पत्तिगृहस्वरूपमाह
पासे उबबादगिहं हरिस्स मडवास दीहरुदपजुदं । दुगरयणसयण मज्झ वरजिणगेई बहकूडं ।। ५२३ ॥ पाई उपपादयः वागमधुम् ।
द्विकरतशयनं मध्य वरजिनमेहं बहुकुटम् ॥ ५२३ ।। पासे । तन्मानस्तम्भस्य पार्वे परयोजनण्यासर्वोत्ययुतं मध्ये द्विरत्नशयनपुत हरेपपारगृहमस्ति । एतस्य पाये बहकूट वरजिनगेहमस्ति ॥ ५२३ ॥
इन्द्र के उत्पत्तिगृह का स्वरूप कहते हैं
गाचार्य :-उम मनिस्तम्भ के पास इन्द्र का उपपाद गृह है । जो आउ योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा है। उसके मध्य में रत्नों की दो शय्या है । तथा उपपाद गृह के पास ही बहुत कूटों से युक्त उत्कृष्ट जिन मन्दिर है ।। ५२३ ॥
विशेषार्थ :- मानस्तम्भ ने पाच भाग में ८ योजन लम्बा, ८ योजन चौदा और न ही योजन ऊंचा उपपाद गृह है, जिसके मध्य भाग में रत्नमयो दो पाया है। तथा जिसके पास ही बहुत कूटों (शिखरों ) से सहित उत्कृष्ट जिन मन्दिर है। साम्प्रसं कल्पत्रीणामुत्पत्तिस्थानं गाथाहयेनाह
दक्खिणउचरदेवी सोहम्मीसाण एव जायते । तहिं सुद्धदेविसहिया छञ्चाउलाखं विमाणाणं ||५२४॥ तदेवीभो पच्छा उपरिमदेवा जयंति सगठाणं । सेस विमाणा छच्चदुबीमलक्ख देवदेविसम्मिस्सा ॥२५॥ दक्षिणोत्तरदेव्यः सौधर्मशान एव जायन्ते । तत्र शुद्धदेवीसहिता षटचतलक्ष विमानानाम् ।। ५२४ ।। तद्देवी: पश्चादुपरिमदेवा नयन्ति स्वकस्थानं ।
शेषविमाना: पट चतुर्विशलक्षाः देव देविसम्मियाः ।। ५२५ ॥ पनिणरण । वक्षिणीतरकल्पस्थमेवानां देव्यः सौधर्मशान एव जायन्ते । सत्र सौधमंदये शुद्धदेवोसहिताः षट्लक्षचतुर्लविमानाः सन्ति ।। ५२४ ॥
तद्देवीमो । ताच देवीः पश्चादुपरिमदेवाः नयन्ति कोषकोयल्यानं शेषविमामा पविशतिलक्षा: पविशतिलक्षाः देवदेवीप्तम्मिश्रा भवन्ति ॥ ५२५ ॥
अब दो गाथाओं द्वारा कल्पवासो देवांगनाओं के उत्पत्ति स्थान कहते है