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त्रिलोकसार
इदानीं तदाधारस्याकाशस्य लोकरवमुच्यते
धम्मम्मागासा गदिरामदि जीवपोग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो आयासमदो परमतं ॥ ५ ॥
गाथा : ५-६
धर्माधर्माका गतिरागतिः जीवपुद्गलयाः च । यावत्तावलोक आकाशं अतः परमनंतम् ॥ ५ ॥
धम्मा | धर्माधर्माकाशा गतिरागतिजवपुद्गलयोः चकारात् काला सावरण याववाकाशममिव्याप्य वर्तन्ते तावदाकाय लोकः प्रतः परमाकाशमम न संख्यातादि ॥ ५ ॥
द्रव्यों के माघारभूत आकाश को लोक कहते हैं:गाथार्थ :- धर्मद्रव्य, अधमंद्रव्य, आकाला और गति
की एवं
द्रव्य तथा च शब्द से ) काल द्वष्य जितने आकाश को अभिव्याप्त करते हैं उतने आकाशको लोक कहते हैं, इसके आगे अलोकाकाश है जो अनन्त है ॥ ५ ॥
विशेषार्थ :- जितने आकाश में छह द्रव्य पाये जाते हैं अथवा जितना आकाश छह द्रष्यों का आधार है, उसे लोक कहते हैं। लोक के आगे अनन्त अलोकाकाश है। आकाश द्रव्यमें लोक और अलोकका विभाजन धर्म, अधमं द्रव्य के कारण हुआ है। ये धर्म, अधमं द्रव्य जीव और पुद्गल की गति व स्थिति में कारण हैं।
अथ परपरिकल्पित लोकसंस्थान निराकरणार्थमाह
अन्तः ( ब०, १० ) । २ एकमुरजोदय: ( प० ) ।
उन्मियदलेकमुखद्धयसंचयमणिहो हवे लोगो । अद्भुदयो मुरवसमो चोदसरज्जूद सब्द ।। ६ ।। उद्भूतलक मुरजध्वज समयसन्निभो भवेत् लोक | अर्धोदयः मुरजसमः चतुर्दशरज्जूदयः सर्वः ॥ ६ ॥
उभय । उभी मूलमुरक सुरज समिः । प्रत्र' शून्यतानिराकरणार्थ सभी भवेल्लोकः । प्रमुरजोषय: एक मुरजोवयसमः मिलित्वा सर्वलोकातुवंशरज्जूदय ॥६॥
अब अन्यवादियों द्वारा परिकल्पित लोकरचना के निराकरण हेतु कहते हैं :
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गाथार्थ :- लोक का आकार खड़ी (ऊभी) डेढ़ मृदङ्ग के सदृश है। तथा मध्य में भी ध्वजाओं के समूह सह भरितावस्था स्वरूप है, शून्य नहीं है । अर्धमृदंग के समान अधोलोक और एक मृदंग के समान ऊर्ध्वलोक है, तथा दोनों को मिलाकर सवं लोक चौदह राजू ऊंचा है ॥ ६ ॥
विशेषार्थ :- लोक का आकार डेढ़मृदंग के समान कहा, उसका अर्थ यह नहीं है कि लोक मृदंग के समान बीच में पोला भी है, किन्तु वह तो बजाओं के समूह सहरा भरा हुआ है । अघं मुर