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________________ त्रिलोकसार बाथा । ५६४ से ५ε६ विशेषाचं :- विजया की खण्ड प्रपात गुफा ५० योजन लम्बी है । २५ योजन पर अर्थात् ठीक मध्य भाग में पूर्व पश्चिम दोनों दीवालों के निकट दो कुण्ड बने हुए हैं, इन दोनों कुण्डों से क्रमशः निकलने वाली उन्मग्ना और निमग्ना नाम की दो दो योजन चौड़ी दो नदियाँ दोनों ओर से गंगा को स्पर्श करती हैं । अर्थात् गंगा में मिल जाती है। ५०० जियजलपवाइपडिदं दव्वं गुरुगंधि रोदि उवरि तटं । आप तम्हा क्षण उदाहिनी सा ॥ ५६४ || णियजलमरउवरि गर्द दव्वं लहूगंपि येदि हिदुम्मि । जेण्णं तेणं मण्णदि एसा सरिया णिमम्मति ।। ५९५ ।। ततो दक्खिणभरहस्सद्धं गंतूण पुव्वदिसवदणा । मागदारंतरदो लवणसमुदं पविङ्का सा ।। ५९६ ।। निजजलप्रवाहपतितं द्रव्यं गुरूकमपि नयति उपरि तटम् । यस्मात् तस्मात् भरते उन्मग्ना वाहिनो एषा ॥ ५६४ ।। निजजलम रोपरि गतं द्रव्यं लघुकमपि नयति अक्षस्तनं । येन तेन भण्यते एवा सरितु निमग्ना इति ।। ५२५ ।। ततो दक्षिण भरतस्यार्धं गत्वा पूर्वदिशावदना । मागषद्वाराश्तषतः लवणसमुद्रं प्रविष्टा सा ॥ ४३६ ।। थि । मिलप्रवाहपतितं गुरुक्रमपि प्रष्यं यस्मादुपरि तटं नयति तस्मादेषा उन्मत्तवाहिनीति मध्यते ॥ ५६४ ॥ लिय । निजजलभारोपरिगतं लघुकमपि द्रव्यमषस्तान्नयति येन तेषा सरिनिमग्नेति मध्यते ॥ ५६५ ॥ तत्त। ततो गुहाया निर्गत्य दक्षिण भरतस्यार्धं ११६ भागत्वा एतावत्कथं ? भरतप्रमाणे १२६ दाण्या ५० व्यय ४७६ प्रधिते २३८३ एक भरतस्य प्रमाणं । एकस्मिन् पुनरषिते ११९३ बक्षिण भरताधं स्यात् । पूर्वविश्ववना मागघद्वारान्तरतः सा गंगा स्वसमुद्र प्रविष्ठ ।। ५६६ ।। पार्थ :- क्योंकि यह नदी अपने जलप्रवाह में गिरे हुए भारी से भारी द्रव्य को भी ऊपर लट :― पर ले आती है, इसलिए यह नदी उत्मग्ना कही जाती है ।। ५९४ ॥ गाथार्थ :- क्योंकि यह अपने जल प्रवाह के ऊपर आई हुई हलकी से हलकी वस्तु को भी नीचे ले जाती है, इसलिए यह नदी 'नियस्ना' कही जाती है ।। ५६५ ।।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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