SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ एतत्सिद्ध फल मुच्चारयति त्रिलोकसार सचासीदिच दुस्सदसदस्सतेसी दिलख उणवीसं । चीसहियं फोटिसहस्सगुणियं तु जगपदरं ॥१३९ ।। सीसच स हि वय सहस्से गलनखमजियं तु । समयं वादारुद्धं गणियं मणियं समासेण ॥ १४० ॥ साशीतिचतुः शतसहस्रत्र्यशी तिलक्षैकोनविंशम् । चतुर्विद्याधिकं कोटिसहस्रगुणितं तु जगत्प्रतरम् ॥१३९२ । षष्टि सप्तशः नवकसह कलक्षभक्त तु । सर्व वाताचं गणितं भणितं समासेण ॥ १४० ॥ पापा : १३९-१४१ सत्तासी साशीतितुः शतसहस्रत्रयशी तिकोनविंशतिचतुविशतिसहितकोटिसहस्रतिजगात फलं भवति ॥ १३६ ॥ ॥ सट्ठी | छायामानमेवार्थः ॥ १४०॥ वातवलयों द्वारा रुद्ध समस्त क्षेत्रों के क्षेत्रफलों का योग - गावार्थ :- सम्पूर्ण वातवलयों से रोके हुए क्षेत्रों के क्षेत्रफलों की जोड़ने पर एक लाख नौ हजार सात सौ साठ से भाजित जगातर गुपित एक हजार चौबीस करोड़ उन्नीस लाख तेरासी हजार चार सौ सत्तासी प्राप्त होता है। यह गरिगत संक्षेप से कहा गया है ।।१३६ - १४० ।। विशेषार्थ :- लोक के जितने क्षेत्र को तोनों पवनों ने रोका है उस समस्त क्षेत्र के क्षेत्रफलों का योग करने पर ज x प्राप्त होता है । १०३० अथ सिद्धानां जघन्यो ष्टेना रगाह क्षेत्रमाह पारसकखा सयाण खंडाणमेयखंडादि । सिद्धाणं तपुत्रादे जहणकस्मयं ठाणं ॥ १४१ ॥ नवदशलक्ष शतानां खण्डानामेकखण्डे । सिद्धानां तनुवाते जघन्यमुत्कृष्टं स्थान ॥ १४१ ॥ गव । नवलक्षपक यशशतयोजन ६००००० १५०० खण्डानां मध्ये एकस्मिन अण्डे सिद्धा समुवाले जघन्यमुकुटं च स्थानम् ।।१४१ ॥ लोक के अग्रभाग पर तनुत्रात वलय में विराजमान सिद्ध परमेष्ठी की जघन्योत्कृष्ट अवगाहना द्वारा रुद्ध क्षेत्र कहते हैं
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy