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________________ त्रिलोकसार पाषा: १५० पोहि । स्पिानं प्रतिक्षितम्पानं वा रमेचरमायो । ततः सौमन्तारिणिबिलनामामि। धर्माया: पूर्वादिविशायो काक्षा विपासा महाकाक्षा प्रतिपिपासा ॥१५॥ नामा:--सप्तम महातम प्रभा पृथ्वी में अवधि स्थान ( अप्रतिष्ठित ) नामका एक ही इन्द्रक विल है । सीमन्तादिक इन्द्रक सम्बन्धी पूर्वादि दिशाओं में जो चार चार श्रेणीबद्ध बिल हैं उनके नाम १. कांक्षा, २ पिपासा. ३ महाकाक्षा, और ४ महापिपामा हैं ॥१५९।। विशेषा-नरक पश्चियां सात हैं। इनमें जीवों की उत्पत्ति स्थानों के इन्द्रक, मणीवद्ध और प्रकीर्णक ये तीन नाम हैं। जो अपने पटल के सर्व बिलों के ठोक मध्य में होता है, उसे इन्द्रक कहते हैं, इस इन्द्रक बिल को चारो दिशाओं एवं विदिशाओं में जो बिल पंक्ति रूप से स्थित हैं, उन्हें वेणीबद्ध, तथा जो श्रेणीबद्ध बिलों के बीच में बिखरे हुए पुष्पों के ममान यत्र तत्र स्थित है, उन्हें प्रफीक कहते हैं । प्रत्येक नरक में कम से १३.११.१,७,५,३ और १ ( इस प्रकार ४६ ) इन्द्रक बिल हैं । गाथा नं. १५४ मे १५८ तक तथा गाथा १५९ के पूषिं में इन ४९ इन्द्रक विलों के नाम साये गये हैं। प्रत्येक पथ्वी के प्रथम इन्द्रक की चारों दिशाओं में जो श्रेणीबद्ध बिल हैं, उनमें से चारों दिशाओं के प्रथम प्रथम श्रेणीबद्ध बिलों के नाम दर्शाये जाने के लिए गाथा १५६ के उत्तराध में प्रथम धर्मा पृथ्वी के प्रथम सामन्त इन्द्रक बिल को चारों दिशाओं में जो ४६,४९ श्रेणीबद्ध बिल हैं, उनमें से बारों दिशाभों के प्रथम श्रेणीबद्धों के कम से कांक्षा, पिपासा, महाकांक्षा और महापिपासा ये नाम कहे गये हैं। - प्रथोत्तराघस्य पात निकां गर्भीकृत्य गाथात्रयमाह पंसतदगे अणिच्छा अविज्ज महणिच्छ महमविज्जा य । तचे दुक्खा वेदा महदुक्ख महादिवेदा य ॥१६॥ वंशाततके अनिच्छा अविद्या महानिच्छा महाऽविद्या च । तप्त दुःखा वेदा महादुःस्खा महादिवेदा च ॥१९॥ वंस । वंशावाततकेाके मनिया विधा महानिच्छा महाविणा । मेधायाः तप्तेन्द्र कुमा बेवा महाबुःला महाका ७१६०॥ शेष २४ श्रेणीबद्ध विलों के नाम तीन पायाओं द्वारा कहते हैं: गापार्षः-शा पृथ्वी के तत इन्द्रक बिल की चारों दिशाओं में कम से अनिच्छा, अविद्या, महानिच्छा और महाविद्या नामक चार प्रथम श्रेणीबद्ध बिल हैं । मेधा पृथ्वी के तम इन्द्रक को चारों दिशाओं में दुःखा, वेवा, महादुःखा और महावेदा नामक चार बिल हैं ।।१६.1
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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