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त्रिलोकसार
पाथा:४१४
उत्तरगा । उत्तरगावृत्तिा यावि: विषया स्याव उभयत्र पश्चगच्छः द्वितीयावृत्तिस्तु भवेद । कृष्णपक्षे त्रयोदश्यां मृगशीर्षाया ॥४१३ ॥
उत्तरायण मी
बत्ति कैसी है ? उसे कहते हैं
गाचार्य :-उत्तरावृत्ति भो दो को मादि लेकर दो से अधिक होती जाती है। दोनों अपनों में गच्छ का प्रमाण पांच पांच ही है। प्रावण कृष्णा त्रयोदशी को मृगशीर्षा नक्षत्र में द्वितीय आवृत्ति होती है ।। ४१३ ।।
विशेषार्थ :-पूर्व अयन को समाप्ति और नवीन अयन के प्रारम्भ को आवृत्ति कहते है। ये मावृत्तियां पञ्चवर्षात्मक एक युग में इस बार होती हैं। इनमें १, ३, ५,७ और ६ वी आवृत्ति तो दक्षिणायन सम्बन्धी है तथा २, ४, ६, ८ और १० वी आवृति उत्तरायणा सम्बन्धी है।
उत्तरायण को समाप्ति के बाद जब दक्षिणायन सम्बन्धी आवृत्ति प्रारम्भ होती है तब श्रावण मास से ही होती है। प्रथम आवृत्ति प्रावण कृष्ण प्रतिपदा से हुई थी। दूसरी आवृत्ति श्रावण कृष्णा त्रयोदशी को मृगशीर्षा नक्षत्र में कही गई है । · तृतीयाद्यावृत्तिः कदेति चेत्
सुक्कदसमीषिसाहे तदिया सचमिगकिल रेवदिए । तुरिया दु पंचमी पुण सुक्कचउत्थीर पुब्वफगुणिये ।।४१५।। शुक्लदशमोविशाखे तृतीया सप्तमीकृष्णारेवत्याम् ।
तुरीया तु पश्चमी पुनः शुक्लचतुर्या पूर्वफाल्गुन्याम् ।। ४१४ ॥ सुपकवसमी। शुक्लपक्षे वयाभ्यां विशाखायो तृतीयावृत्ति: स्यात् । एपक्षे सम्यो रेवत्या सुविशित्तु रात् । शुक्लपक्षे चतुष्पा तिथी पूर्वाफाल्गुग्या नक्षत्रे पुन: पश्चमी प्रावृत्तिः स्थात् ॥ ४१४ ॥
तीसरी प्रादि आवृत्तियाँ कब होती हैं ? ऐसा पूछने पर कहते हैं
मायार्थ :-इसी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि में विशाखानक्षत्र का योग होने पर तीसरी मावृत्ति होती है तथा श्रावण कृष्णा सप्तमी को रेवती नक्षत्र का योग होने पर चौथी और श्रावण शुक्ला चतुर्थी को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में पांचवी आवृत्ति होती है ।। ४१४ ।।
विशेषार्थ :-पाय की भांति ही है ।