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________________ त्रिलोकसार पापा : ६१३-१४ सोचिव। सुधर्मसभायामिव बावितस्थानातिपरिवारस सह स्वप्रासावे इन स्तिष्ठति सौमनसबनेऽपि सर्वमिदं सविशेषं कथितव्यम् ॥ ६३२ ॥ गाथार्य:--अपने योग्य स्थानों पर स्थित अपने परिवार सहित इन्द्र अपने प्रासाद में ठहरता है । कूदादि का असा वर्णन यहां नन्दन वन में किया है वैसा ही सविशेष वर्णन सौमनस वन में करना चाहिए ।। ६३२।। विशेषार्ष:-इन्द्र अब नन्दनादि वनों में आता है तब स्वर्ग की सुध सभा के समान अपने अपने योग्य स्थानों में परिवार सहित अपने प्रासाद में ठहरता है । नन्दन वन स्थित भवनों के पाश्वभागों में कूटादिक का, आग्नेयादि दिशाओं में बावड़ियों का तथा यावड़ियों के मध्य स्थित प्रासाद मादि का असा वर्णन यहां किया है. वैसा ही सर्व वर्णन विशेषता सहित सौमनस वन में भी करना चाहिए। अनन्तरं मरुशिखरस्थिताना शिलातलानां नामस्थापने वर्णयति पांडकपाडकंबलरचा तह रचयलक्ख सिला। ईसाणादो कंचणरुप्पयतवणीयरुहिरणिहा ॥ ६३३ ॥ पापलुकपाण्डकम्बलरक्ता तथा रक्तकम्बलाख्या: शिलाः। ईशानात् काश्चनरूप्यतपनीयधिरनिभात ॥ १३ ॥ पाडका ऐशानाबारम्य यथासंख्य काञ्चनरुप्यतपनोयापिरनिभाः पाण्डुकाख्यपाण्डकम्बलारूपरक्ताल्यरतकम्बलाल्याः शिलाः पाण्डुकवने सन्ति ॥ ६३३ ॥ म मेरु के शिखर पर स्थित शिलाओं के नामों और स्थानों का वर्णन करते हैं गाथा:-ऐशान दिशा से प्रारम्भ कर चारों विदिशाओं में क्रमश: स्वर्ण, चांदी, तपाए हुए स्वर्ण और रुधिर ( रक्त ) वर्ण के सदृश पाण्डक, पाण्डुकम्बला, रक्ता प्रौर रक्तकम्बला नाम की चार शिलाएं हैं ।। ६५३ ॥ अथ ताः शिला; केषां सम्बन्धिन्यः कथं तासां विभ्यास, इत्युक्त आह भरहवर विदेहेरावाल्व विदेहजिणणिबद्धामो । पुनवरदक्खियुचरदीहा मधिरथिरभूमिमुहा' ॥६३४।। भरतापरवि देहेरावतपूर्व विदेहजिननिबद्धाः। पूर्वापरदक्षिणोत्तरदीर्घा अस्थिरस्थिर भूमिमुखाः ।।६३४॥ । मस्बिर इत्युक्त भरतरावासम्मुखे । स्पिर प्रत्युक्त पूर्वापर विदेहसम्मुखे इत्यर्थः (व. प्रतो दि.)
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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