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पाथा:६३५
नरतियंग्लोकाधिकार भरह। ताः शिला पपासंख्य भरतापरविरावतपूर्व विवाशिमनिबहाः स्युः । पूर्वापरयक्षिणीतरवीर्घा प्रस्पिर स्थिर भूमिमुखा । ६३४ ॥
वे शिलाए किनसे सम्बन्धित हैं और उनका विन्यास कैसा है ? उसे कहते हैं- ।
पाथार्य :-वे शिलाएं कमशः भरतक्षेत्र, पश्चिम विदेहक्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र और पूर्व विदेह क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थ स्करों से सम्बन्धित हैं। उनकी लम्बाई ( कम से ) पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण तक है । उन शिलाओं की भूमि अस्थिर है और मुख स्थिर है ।। ६३४ ।।
विशेषार्थ :-भरतक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक पाण्डुक शिला पर, पश्चिः। विदेह यंत्र होने वाले ती कर देवों का पाण्डुकम्बला शिला पर, ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी तीर्थङ्करोंका रक्ता शिलापर और पूर्व विदेहमें जन्म लेने वाले तीर्थङ्कर देवोंका जन्माभिषेक रक्तकम्बला शिला पर होता है । पाण्डक शिला को लम्बाई पूर्व दिशा को ओर, पाण्डु कम्बला की पश्चिम को ओर, रक्ता को दक्षिण की और एवं रक्त कम्बला, की लम्बाई उत्तर दिशा की ओर है। इन शिलाओं की भूमि अस्थिर और मुख स्थिर है।
नोट :-इन पाण्डक बादि शिलाओं की लम्बाई १०० योजन और चौड़ाई ५० योजन है। यह घौड़ाई बह मध्य भाग की है, अतः बहु मध्य भाग से चौड़ाई में दोनों ओर कमशः हानि होती गई है अतः अस्थिर है और लम्बाई सदृश है अत: स्थिर है। इस अपेक्षा मुख स्थिर और भूमि अस्थिर हो जाती है । अथवा शिलाओं के नीचे का भाम अस्थिर ( खुरदरा ) और ऊपर का भाग स्थिर ( चिकना) है । यह अर्थ भी भूमि अस्थिर और मुख स्थिर का हो सकता है।
यह उपयुक्त अथं मैंने अपनी समझ से लिया है। इन शब्दों का यथार्थ भाव क्या है ? वह विद्वज्जनों द्वारा विचारणीय है। अथ धाम्तेन तेषां शिलातलानामावति प्रतिपादयन् दयमाचष्टे
बद्धिदुणिहा सव्वे सयपग्णासट्ठदीहवासुदया। आसणतियं तदुरि जिणसोहम्मदुगपडिबद्धं ॥६३।। अर्धन्दुनिभाः सर्वाः शनपञ्चाशष्टदीर्घच्यासोदयाः ।।
आसनत्रयं तदुपरि जिनसोषमंद्वयप्रतिबद्ध ॥ ६३५ ॥ प्रदि। ताः सर्गः प्रधन्दुनिभाः शतयोजनदीर्घाः पञ्चाशयोजनव्यासा प्रयोजनोवया: स्युः । तासामुपरि जिनसौधर्मयप्रतिबसमासनत्रपति ।। ६३५ ।।।
___ अब दृष्टान्त द्वारा उन शिलाओं की आकृति का प्रतिपादन करते हुए उनकी दीर्घता आदि कहते हैं
पापा:-वे सब शिलाए अर्धचन्द्राकार सदृश हैं। उनकी लम्बाई सो योजन, बीच की चौड़ाई