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पाया:-८३
शक्षियं धिमान
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विशेषा:-चतुषं सुषमा-दुषमा काल में जघन्य भोगभूमि की रचना है, पश्चम सुपमा काल में मध्यम प्रोर छठे सुषमासुषमा काल में उत्कृष्ट भोगभूमि को पचना है। एवं भरत रावतक्षेत्रेपूक्तगठ कालान क्षेत्रान्तरे नियमेन योजयितु गाथात्रयमाह
पढमाद: तुरियोति य पढमो कालो भवद्विदो कुरवे । हरिरम्मगे य हेमवदेरण्णवदे विदेहे य ॥ ८८२ ।। प्रथमतः तुर्यान्तं च प्रथमः काल; अवस्थितः कुर्योः।।
हरिरम्यके च हैमवद्धरण्यवतयोः विदेहे च ।। ८८२ ॥ पढमा। प्रथमकालत भारम्प चतुकालपर्यन्तं नियमः कप्यते ।
क त्र प्रथमः कालो बेवोत्तरपुर्वोरमस्थित एष, द्वितीयः कालो हरिरम्यकक्षेत्रयोरवस्थित एव, तृतीयः कालो हमवत रपयपतक्षेत्रयोरस्थित एच, धतुशालो विहे वापस्थित एव ॥ ८५२
भरत रावत क्षेत्रों में कहे हुए छह कानों को नियम पूर्वक अन्य क्षेत्रों में जोड़ने के लिए तीन गाथाएँ कहते हैं
गावार्थ:-प्रथम काल से चतुथं काल पर्यन्त का नियम कहते हैं-प्रथम काल देव कुरु पौष उत्तर कुरु में अवस्थित है। दूसरा काल हरि ओय रम्यक क्षेत्रों में, तीसरा काल हैमवत और हैरण्यवत में तथा चतुर्थकाल विदेह क्षेत्र में अवस्थित है ।। ८१२ ।।
विशेषार्थ:-प्रथम काल से चतुथंकाल पर्यन्त को अवस्थिति का नियम कहते हैं-सुषमासुषमा नाम का प्रथम काल देवकुछ और उत्तर कुरु में अवस्थित है । अर्थात् प्रथमकाल के प्रारम्भ में आयु उत्सेध एवं सुग आदि की जो वर्तना है वैसी ही वर्तना देवकुह और उत्तरकुरु में निरन्तर रहती है। भी प्रकार सुषमा नामक द्वितीय काल की जो वर्तना है वैसी ही वर्तना हरि और रम्यक क्षेत्रों में मिरात र रहती है तथा सुषमा-दुषमा नामक तृतीय काल मी वर्तना के सदृश हेमवत और हरण्यक्त क्षेत्रों में निरन्तर रहती है। इसी प्रकार दुषमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल की जो वर्तना है वैसी ही वना विदेह क्षेत्र में निरन्तर अस्थित्त रहती है।
मरह इरावद पण पण मिलेच्छखंडेसु खपरसेढीम् । दुस्समरुसमादीदो अंतोनि य हाणिबड्डीः य || ८८३ ॥ . भरतः रावत: पश्च पञ्च म्लेच्छखंडेषु खचरगिषु।
दुःषमसुषमादितः अन्त इति च हानिवृद्धी च ।। ८३ ॥ भरहे। भरतरावस्थितपश्चपञ्चम्लेच्छमण्डेषु खचरणिपु व दु:षमतुषमयादितः पारस्य तस्वातपर्यन्तं पपिएपामायुरावहामि: स्यात्। तत्र पञ्चमष कालो न प्रवर्तते । उसविख्या तु