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त्रिलोकसाच
तृतीयकालस्यादित प्रारभ्य तस्यैवान्तपर्यन्तं बुद्धिरेव स्यात् ।
प्रवर्तन्ते ॥ ६८३ ॥
६७४
पाया : ८८४
तत्र चतुर्थपञ्चमषकाला न
गावार्थ:- भरत पर ऐरावत क्षेत्रों के पाँच पाँच म्लेच्छ खण्डों में तथा विद्याधरों की शियों में दुःषमा- सुषमा काल के आदि से लगाकर उसी काल के अन्त पर्यन्त हानि वृद्धि होती है ॥ ८६ ॥
विशेषार्थ :- भरत पौर ऐरावत क्षेत्रों में स्थित पाँच पाँच म्लेच्छ खण्डों में तथा विजयाचं की विद्याधर की श्रंरियों में अवस पिरणी के चतुर्थकाल के आदि से उसी काल के अन्त तक पायंखण्ड में आयु और उत्सेध आदि की जैसी हानि होती है वैसी ही हानि होती रहती है। वहाँ अवसर्पिणी के पांचवें और छटवें तथा उत्सर्पिणी के पहिले और दूसरे काल सदृश वर्तना नहीं होती। जो अवपिणी का चतुर्थकाल है वही उत्सर्पिणी का तृतीय काल है अतः आर्य खण्ड में उत्सर्पिणी के तृतीय काल में आदि से अन्त तक अध्यु आदि में जैसा कमिक वृद्धि होती है वैसी ही वृद्धि वहाँ होती रहती है। उसी के चौथे, पांचवें और छठवें काल सदृश बर्तन भी वहाँ नहीं होती । अर्थात् प्रायं खण्ड में जब उत्सर्पिणी के चौथे, पांचवें और छठवें काल का तथा अवसर्पिणी के पहले, दूसरे और तीसरे काल का प्रवर्तन होता है तब भी वहाँ आर्यखण्ड की उत्सर्पिणी के तृतीय काल के अन्त की वर्तना सदृश एक रूप ही वर्तना पाई जाती है ।
वर्तते
वर्तते ॥ ५८४ |
पदमो देवे चरिमो रिए तिरिए णरेत्रि चक्काला | तदियो कुणरे दुस्सममरिमो चरिमुवहिदीवद्धे ।। ८८४ ॥ प्रथमः देवे चरमः निरये तिरश्चि नरेऽपिषद् कालाः । तृतीय: कुमरे दु:षमसदृशः चरमोदधिद्वपार्थे ॥ ८८४ ॥
पदमरे । देवगतौ प्रथमकासरे वर्तते नरके चरमतालो वर्तते, तिर्यग्गतो मनुष्यवती च षट्काला मनुष्य भोगभूमी तृतीयकालो वर्तते, स्वयम्भूरमणद्वीपा तत्समुळेच दुःसहाः कालो
गामार्थ:-- देवगति में प्रथम काल सहा और नरक गति में छटवें काल सहा बना होती है । मनुष्य और तिर्यख गति में श्रद्दों कालों का वसंत है मनुष्य ( भोगभूमि ) में तृतीय काल सहा और स्वयंभू रमण द्वीप और सम्पूर्ण स्वयम्भूरमण समुद्र में निरन्तर दुःषम काल सदृश वर्तना रहती है || ४ ||
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विशेषार्थ :- देवगति में निरन्तर प्रथम काल सदृश और नरकगति में निरन्तर छ काल स वर्तना होती है । ( यहाँ अत्यन्त सुख एवं अत्यन्त दुःख को विवक्षा है मायु आदि की नहीं । मनुष्य और तिर्यख गति में छहों कालों का पतन है । कुमानुष अर्थात् कुभोगभूमि में तृतीय काल सहरा