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________________ . त्रिलोकसार गाथा: १३१ ६०००० सप्तमक्षितिबक्षिणोत्तरत: । दुखभूमिजोगवलेस्याविना प्राग्वत राशिकविपिना घानेतन्यम् ॥१३०॥ दक्षिणोनर दातवालयों का क्षेत्रफल प्राप्त करने हेतु नियम कहते हैं मापार्य :-- दक्षिणानर अपेक्षा लोक के नीचे से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त पवनों का उदय ( ऊंचाई १ राज , सप्तम पृथ्वी के ममीप मुख ( चौड़ाई ) ६ राजू, भूमि जगच्छंणी प्रमाण अर्थात् ७ गजू तथा वेष ( मोटाई) ६० हजार योजन है ॥१०॥ विशेषार्थ :-लोक के नीचे की चौड़ाई का प्रमाण ७ राज है, यही भूमि है। सातवी पृथ्वी के निकट लोक की चौड़ाई का प्रमाण ६ राजू है, यही मुख है । लोक के नीचे से सप्तम पृथ्वी पर्यन्त उदय (ऊंचाई 1 राज़ अर्थात् १ राजू है तथा यहीं पर पवनों का वेध ( मोटाई ) ६० हजार योजन है । इन सबका क्षेत्रफल निम्नलिखिन प्रकार म होगा भूमि राज + राजु मुख - १९५४३ ... ९३ राजू प्राप्त हुआ। इसका आधा ( १९ ४३) राजू हुआ। पाय भाग है अत: दूना करने से ) = g राजू हुआ। इस राजू को उदय ( ऊंचाई ) से गुणा करने पर (T x अर्थात् १ राज् प्राम हुआ। इसमें ६० हजार योजन मोटाई का गुणा करने से -- x xpe क्षेत्रफल प्राप्त होता है । यहाँ ( 1 ) पर ऊपरवाला ( ग्रंश स्त्ररूप ) ४९ जगत्प्रतर स्वरूप है । अत: जगत्प्रप्तर x ६२ ४६०००० क्षेत्रफल प्राप्त होता है। ४९४७ अथे तत्फलमुराचारयति तस्स फलं जगपदरो सविसहस्सेहि जोयणेहि दो। पाणउदिगुणो समयणसंभाजिदो उमयपासम्हि ।।१३१।। सस्य फलं जगत्प्रतः वष्टिसहन : पोजनः इतः।। द्वानवतिगुणः समधन साभक्त: उभयपार्चे ।।१३१।। तास । छायामात्रमेवाः ॥१३॥ उपयुक्त क्रिया का फल कहते हैं :-- गाथा:-जगतर को ६०००० योजन स एवं ९२ से गुणा कर के धन (३४३ राज) का भाग देने पर दोनों पात्र भागों का क्षेत्रफल प्राप्त होता है ।१३।। विशेषाभ :--सप्तम पृथ्वी पर्यन्त दोनों पार्श्व भागों का दक्षिणोत्तर ( पवनों से रुद्ध ) क्षेत्र का क्षेत्रफल इस प्रकार से होगा. जगत्तर- ६००००४ ९२ . जगत्प्रतर x ५५२००००
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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