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त्रिलोकसार
अथ देवविशेषाणां भवस्थानं प्रतिपादयति
गाथा : ५३१-५३२
ईमाणलांबच्चुकम्पोति कमेण होति कंदप्पा | किमयि भिजोगा सगकप्पजहण्णठिदिसहिया || ५३१ || ईशानलान्तवाच्युतकल्पान्तं क्रमेण भवन्ति कन्दर्पाः । किल्विषका अभियोग्याः स्वककल्पजघन्यस्थितिसहिताः || ५३१||
ईसारण । प्रत्र विलक्षण काम्बप परिणामयुक्ताः स्वयोग्य शुभकर्मवशात् ईशानकत्वपर्यसं कन्ववेश सूत्वात्पद्यन्ते न तत उपरि । पत्र गोतरेवजी विलक्षएकेलियषिकपरिणामयुक्ताः स्वयोग्यशुभकर्मज्ञालावरूपपर्यन्तं तत्रापि किल्विधिका एवोत्पद्यन्ते न तत उपरि । मत्र सावधक्रियासु स्वहस्तव्यापारलक्षणाभियोग्य भावनायुक्ताः स्वयोग्यशुभकर्मवशात् प्रच्युतकल्पपर्यन्तं तत्राप्याभियोग्यवेक्षा सूवा उत्पद्यन्ते न तत उपरि । एते सर्व स्वकीय कल्पजघन्य स्थिति सहिताः
सन्तः ।। ५३१ ।
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देव विशेषों के भव स्थानों का प्रतिपादन करते हैं : गाथार्थ :- ईशान, लान्तव और अच्युत कल्प पर्यन्त क्रम से अपने अपने कल्प सम्बन्धी जघन्य आयु सद्दिव फन्दर्प, किल्विषक और अभियोग्य जाति के देव उत्पन्न होते हैं ।। ५३१ ।।
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विशेषार्थ :- यहाँ मनुष्य पर्याय में जो जीव स्त्रीगमन आदि विलक्षण को धारण करते हुए कन्दर्प परिणामों से संयुक्त होते हैं, वे अपने योग्य शुभ कर्म के वश से कन्दर्प देव होकर ईशान कल्प पर्यंत उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । ये देव ईशान कल्प की जघन्य आयु से सहित होते है । मनुष्य पर्याय में जो जीव गीतादि से जीविका चलाना है लक्षण जिसका ऐसे फैल्विधिक परिणामों से युक्त नट आदि अपने योग्य शुभ कर्म के वश से किल्विष देव होकर लान्तव कल्प पर्यन्त ही उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । ये भी अपने उत्पत्ति क्षेत्र की जघन्याय से सहित होते हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याय में जो जीव पाप युक्त क्रियाओं में स्वहस्त व्यापार है लक्षण जिसका ऐसी आभियोग्य भावना से युक्त अर्थात नाई, घोषी एवं दास आदि के करने योग्य कार्यों का स्व हस्त से करते हुए उन्हीं परिणामों से युक्त हैं, वे जीव अपने योग्य शुभकर्म के वश से आभियोग्य देव होकर अच्युत कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं । इनकी भी अपने उत्पत्चित्क्षेत्र की जघन्यापु ही होती है ।
अथ प्रथमादिषु स्थितिविशेषमाह
सोहम्म बरं पल्लं वरसुबहिबि सत्त दस य चोमयं । बावीसोचि दुबड्डी एक्केक्कं जाव तेवीसं ।। ५३२ ॥