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________________ २६८ श्रिलोकसार गाथा: ३५६ ५००० योजन प्रमाण अहीन्द्रवर नामा समुद्र की अभ्यन्तर बेदी से अरंगे उस समुद्र में ७५००० योजन, इसका बाधा ३७५०० यो० और इसका भी आधा ( ५०° )= १८७५.० योजन अर्थात ( ७५०००+ ३७५.०० + १८७५० योजन )- १३१२५० योजन दूर जाकर पड़ता है। इदि अन्भंतरतउदो सगदलतुग्यिमादिसंजुचं । पण्णन सहस्सं गंतूण पडेदि सा ताव ।। ३५६ ।। इति प्राम्यन्तरतरतः स्वकदलतुर्याटमादिसंयुक्तम् ।। ५ श्वसप्ततिम हस्र गत्वा पतति सा तावत् ।। ३५६ ।। इति । इति प्रपन्तरतटस: पारम्य स्वकीयवल ७५००० तुर्या : ७५८०. पुष २x२' २४२४२ हमाचंशः संयुक्त पञ्चसप्ततिसहस्र प्राविशम्बात् पोशांश द्वात्रिशीशा ११२ अधिकमेण गत्वा पतति सा रज्जुस्सावत् याववेवमधिकरणकयोजनमुखरति ते पञ्चसप्ततिसहस्रच्छेदा इयतः १७ वरितकयोजनमंगुलं कृत्वा ७६८००० याबदेकोगुलमुवरति सावतोबगुलेषु छिम्मेषु इयन्तश्छेदा १६ तग्विान सर्षान १७+१६ संख्यातं कृत्वा ( 1 ) सरसंख्यातं प्रशिष्टकांगुलं सूच्यगुसं कृत्वा तस्य छेवेषु । छे छे मिलितमिति (छे थे) मनसि धृत्वा संखेज्जेति' गापामाह ॥ ३५६ ॥ पापार्ष:--इस प्रकार अभ्यासर तट से अपने अचं भाग, नाथाई भाग ओर आठवें भाग आदि से सहित ७५००० हजार योजन आगे जाकर राज का प्रमाण तब तक पड़ता है, जब तक अध अधं करते हुए एक योजन रहता है ।। ३५६ ॥ विशेषार्थ :- इसीप्रकार अभ्यन्तर तट में प्रारम्भ कर ७५००० योजनों से सहित-३", ...... ५०, ५५१०, १३०० अर्घ अर्घ क्रम से जाता हुआ मजू तब तक पड़ता है, जब तक कि मंध अधं करते हुए एक योजन रह जाता है। जैसे- ( उपयुक्त गाथाओं में तीन बार अधं भाग किया जा चुका है। चतथं बार अर्घ किये हुए अहीन्द्रवर नामक द्वीप के अभ्यन्तर तट से अपने ५१°+ १५१००+0-22 से सहित ७५.००० योजन अर्थात ७५... |.३७५००+१८५५ +९३७५ = १४.६२५ योजन आगे जाकर राजू का पौधा साधछेद पड़ता है। पाचवीं बार आधे किये देवव र नामक समुद्र के अभ्यन्तर तट से अपना •५१०० + nge+ sage 0 + १०० अर्थात ७५००० + ३७५०० + १८७५० + ६३७५२४६८७१-१४५३१२, योजन भागे जाकर राज़ पड़ता है। छठवीं बार आधे किये देववर नामक द्वीप के अभ्यन्तर तट से अपना 192° + ५१° + .५१००-१०० + १ अर्थात् ७५०००+ ३.७५०० + १७५० + ६३७५ +४६८७३ + २३४३१= १४७६५६२ योजन आगे जाकर राजू पड़ता है। इसी प्रकार अर्ध अपं के कम से बाते हए जहा एक योजन प्राप्त होता है. वहाँ ७५००० के १७ अच्छेद हो जाते हैं। [इसका चित्रण अगले पृष्ठ में दर्शाया जा रहा है। ] प्राप्त हुए इस एक योजन के अंगुल बनाने पर ७६८००० मंगुल हुए। ---. - ...
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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