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त्रिलोकसाथ
गाथा : ५००-१८१
हैं। नाभिमिरि" की प्रदक्षिणा देती हुई [ प्रत्येक युगल की ] पूर्व कही हुई नदियाँ पूर्वाभिमुख और पीछे कही हुई पश्चिमाभिमुख, बहती हुई लवण समुद्र को प्राप्त होती है ।। ५७८, ४७९ ।।
विशेषार्थ :- पद्मादि सरोवरों से उत्पन्न गङ्गा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुचकूला और रक्ता ये नदियाँ अपने अपने क्षेत्रों में स्थित पर्वतों की प्रदक्षिणा स्वरूप बहती हुई पूर्व समुद्र को जातो हैं, तथा सिन्धु, रोहितास्या, हरिकान्ता, सीतोदा, नरकात्ता, रूप्यकूला और रक्तोदा ये नदियां भी अपने अपने क्षेत्रों में स्थित पर्वतों की प्रदक्षिणा सदृश बहती हुई पश्चिम समुद्र को जाती हैं।
मय तासां नदीनां उभयतस्वरूपं कथयति
पुष्णागणागपूगी कलितमाल के लितंबूली ।
लवली लवंग मन्लीपदी सयलणदिदुतडेसु ||५८० || पुनागनाथ पूर्गीक हितमालकदलीताम्बूली। लवलीलवङ्गमल्लीप्रभृतयः सकलनदीद्वितटेषु ॥ ५८० ॥
पुण्लाग । पुन्नाग: नागकेसरः पूर्वी कडु लिः समाल: कवली ताम्बूली लवली लवङ्गः महलीप्रभृतयो वृक्षाः सकलनदहिसटेषु सन्ति ॥ ५८०
उन नदियों के दोनों तटों का स्वरूप कहते हैं
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गाथा :स नदियों के दोनों तटों पर पुन्नाग, नागकेसर, पूगी (सुपारी), क ेलि, तमाल, ( ताड ), कदली, ताम्बूली, लवली ( हरफररेवड़ी ), लबन और मल्लि आदि के अनेक वृक्ष है || ८० ॥
अथ कस्मिन् कस्मिन् सरस्येता नद्यः उत्पन्ना इति कथयति
गंगादु रोहिस्सा बउमे र सुवणमंतद हे |
सेसे दो दो जोषणदलमंतरिक्षण जामिगिरिं ।। ५८१ ।।
गङ्गादे रोहितास्यापद्मं रक्ताद्वे सुवण अन्तहदे ।
शेपेषु द्वे द्वे योजनदलमसरिया नाभिगिरिम् ।। ५८१ ॥
गंगा । गङ्गा सिन्धुः रोहितास्था च पद्मह्नवे उत्पन्नाः रक्ता रक्कोवा सुबर्णफूला चशन्तह्नदे पुण्डरीकाख्ये उत्पन्नाः । शेषेषु सरह द्वे द्वे नही उत्पन्नं तत्र गङ्गा सिन्धू रक्ता रक्तोदेति चतुर्नवी: परित्यज्य शेषा नद्यो नामिगिरि योजनाऍमन्सरिश्वा गताः तत्र गंगा सिन्धुरक्तारतो
नामितिरेश्मा
वादेवार्थामताः ।। ५६१ ॥
ये नदियों किस किस सरोवर से निकली हैं ? उसे कहते :
देखियेगा ५०९ का विशेषार्थं ।