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निचतिग्लोव्हाधिकार
ere are वर्तनाकालं पुनरपि युगपदेव रचना विशेषेण गाथापश्यदाहजिसको विदा समकाले सुष्णहेट्ठिमे रविदा |
उदयजिणंतरजादा सण्णेया चक्कहररुदा || ८४२ ।।
गाथा : ८४२-६४३
जिनसमकोष्ठस्थापिताः काले शून्यस्तते
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उभयजिनान्तरजाता संज्ञेया चकधररुद्राः ॥ ६४२ ॥
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जिए। मिनेन्द्राणां समकोष्ठे स्थापितावचक्रपचविदाः तेषां समकाले जाता इति जाण्याः शुन्यावस्तन भागे रचितास्ते उभयजिनान्तराले जाता इति ज्ञातव्याः || ८४२ ॥
चक्र, अत्री और रुद्रों का वर्तनाकाल पुनः युगपत् रचना विशेष द्वाचा पाँच गाथाओंों में कहते हैं
गाथार्थ : -- जिनेन्द्र के समान कोठों में स्थापित किए हुए चकवर्ती, अर्धचक्रवर्ती एवं रुद्रों को उनके समकालीन जानना तथा शून्य के नीचे स्थापित चक्रवर्ती आदि को दो जिनेन्द्र देवों के अश्वराल में उत्पन्न हुआ जानना चाहिए ॥ ८४२ ॥
तेषां कोष्टानां विष्यासक्रमः कथमिति चेत्
पण्णर जिण खदु तिजिणा, सुण्णदु जिण गगणजुगल जिण खदुगं । जिण खं जिण खं दुजिणा,
इदि चोचीसालया गेया ॥ ८४३ ॥ पचदशजना खद्वयं त्रिजिनाः, शून्यद्वयं जिनः गगनयुगलं जिना खयं । जिनः खं जिनः खं द्विजिनो इति चतुस्त्रिशदालया शेयाः ॥ ८४३ ॥
परणर। पञ्चदशजिनातस्तान्यद्वयं ततस्त्रयो मिनाः ततः शुन्यद्वयं ततः पुनशन त
शून्ययुगलं ततो जिनस्ततः शून्यद्वयं ततो जिनस्ततः शुभ्यं ततो जिनस्ततः शुभ्यं हो जिनो इति पंक्तिक्रमेण चतुस्त्रिको जातयाः ७ ८४३ ॥
उनके कोठों का विन्यास क्रम कैसे है ? उसे कहते हैं :-- गाथार्थ :- वृषभादि पन्द्रह जिन, उससे आगे दो शून्य, उससे आगे तीन जिन, आगे वो शून्य, फिर जिन, फिर दो शून्य आगे एक जिन, फिर दो शून्य, उससे आगे एक जिन. एक शून्य, फिर एक जिन, एक शून्य और उसके बाद दो जिन इस प्रकार चौतीस कोठे जानना ।। ६४३ ।।
विशेषार्थ :- प्रथमादि पन्द्रह कोठों में वृषभादि पन्द्रह जिनेन्द्रों के नाम लिखकर वो कोटों में दो धून्य रखना, उससे आगे सीन जिनेन्द्रों के नाम पुनः स्थापन करना, उससे आगे के कोठों में दो