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________________ - ६५६ - - त्रिलोकसार पाषा:४४-६४५-८४६ शून्प फिर एक जिन दो शून्य फिर एक जिन दो शून्य पुनः एक जिन एक शून्य, उससे आगे एक जिन एक शून्य और उसके आगे दो जिनेन्द्रों का स्थापन करना चाहिए। तदधस्तनपंक्तो किमिति चेत चक्किदु तेरस सुण्णा छन्चरकी गयणविदय चक्की खं । चक्की गभग पक्की गयणं चक्कहर सुग्णदुर्ग ।। ८४४ ॥ दसमयणपंचकेसवछस्सुण्णा पउमणामणमविण्हू' । गयणति केसव सुग्णदु मुरारि सुण्णचियं कमसो ।।८४५॥ रुद्ददुर्ग छम्सुण्णा सत्त हरा गयणजुगलमीसाणो । पण्णर णमाणि तचो सच्चइतणओ महावीरे ॥ ८४६ ॥ चकिती त्रयोदशशन्यानि षट्चकिरणः गगनत्रितयं चकी खं । चक्रो नभोदिक चक्री गगनं चक्रधरः शून्यद्वयं ॥८४४ ।। दशगगर्ग पञ्चकेशवाः षट्शन्यानि पद्मनामनभोविष्णुः। गगनश्रयं केशवः शून्यद्वयं मुरारिः शून्यत्रयं क्रमशः ।। Exk || रुद्रद्विक षट्शन्यानि सप्तहराः गगनयुगलमीशानः। पञ्चदशनमांसि तता सत्यकीतनयः महावीरे ।। १४६ ।। विक। किरणो तो सत्पुरस्तात त्रयोदशशून्यानि, ततः षट्वकिरणततो गगनत्रयं, सतश्च ततः सं सतरचकी ततो वमोतिकं तसाचक्री ततो गानं ततश्चक्रधरा ततः शून्यदमित्येवं स्थापनीयं ॥४४॥ वस । तृतीयपंक्ती तु पशशून्यानि ततः पुरस्तात् पञ्चकेशवाः ततः षट्शून्यानि ततः केशवस्ततो नमस्ततो विष्णुस्ततो गगनवयं तत: केशवस्ततः शून्यद्वयं ततो मुरारिस्तत: शून्यत्रय इत्येवं कमेण स्थापनीयं ।। ८४५ ॥ १६ । चतुर्षपंक्तो पुना तोही ततः षट् शून्यानि ततः सप्तशातलो गगमयुगलं ततः शामतः पञ्चबानासि ततः सत्यकितनयः श्रीमहावीरजिमकाले स्यात् । इत्येवं कमेण संस्थासमीयं ॥ ४६॥ उसके नीचे को दूसरी पंक्ति में क्या रखना ? उसे कहते हैं गाचार्य :--दो चक्रवती उससे आगे तेरह शून्य उसके आगे छह चक्रवर्ती और तीन शून्य उसके आगे एक चक्रवर्ती एक शून्य इसके आगे एक चकवी दो शून्य उसके मागे एक चक्री
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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