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गाथा । २५३-२५४-२५५
ध्यन्त रलोकाधिकार अप तेषां चैत्यतरुभेदमाह
तेसि ममोयचंपयणागा तुंबुरुवहो य कंटतरू | तुलसी कदंरणामा चेत्ततरू होति हु कमेण ||२५३॥
तेषां अशोक चम्पकनागा: तुम्बुरुवटारच कन्टतमः ।
तुलसी कदम्बनामा त्यसरवो भवन्ति स्खलु कमेण ॥२५३।। तेसि । नागा नागकेसर इत्यर्थः । दोषं छायामात्रम ॥२५३॥ ध्यन्तरदेवों के चैत्यवृक्षों के भेद
गावार्थ:-यन्तरदेवों के क्रमशः अशोक, चम्पा, नागकेसर, तुम्बरु, वट, कण्टतरु, तुलसी और फदम्ब चैत्यक्ष होते हैं ।।२५३।। अथ तच्चैत्यत रुग्लस्थजिनप्रतिमादिमाह
तम्मूले पलियंकगजिणपडिमा पडिदिसम्हि चत्तारि । घउतोरणजुसा ते भवणेसु च जंबुमाणद्वा ||२५४॥
तन्मूले पल्याङ्कगजिनप्रतिमा: प्रतिदिश चतयः ।
चतुस्तोरणयुक्तास्ताः भवनेषु च जम्बूमानार्थः ॥२४॥ तमूले । जसमामाषाचैत्यतरवः जम्मूमपरिकरप्रमाणार्थ इत्यर्थः । ये घामामात्रमेव ॥२५॥
उन चैत्यवृक्षों के मूल में स्थित जिनप्रतिमादि का कथन करते हैं
गावार्थ:--चैत्यवृक्षों के मूल की प्रत्येक दिशा में चार चार तोरणों से युक्त, पल्यासम पार चार जिन प्रतिमाए हैं । ये चैत्यवृक्ष भवनवासी देवों के वृक्षों के सदृश ही हैं । इनका प्रमाण आगे कहे जाने वाले जम्बूवृक्ष के परिकर के प्रमाण से आधा है ॥२५४॥ अथ सदस्यमानस्तम्भं सविशेष निरूपति
परिपरिमं एक्शेरका माणत्वंभातिषीढसालजुदा । मोचियदामं सोडा घंटाजालादियं दिव्वं ॥२५५।।
प्रतिप्रतिमां एफका मानस्तम्भाः त्रिपाठशालयुताः। मौक्तिकदाम गोभते घण्टानालादिकं दिव्यम् ॥२५५।।