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________________ । ३३ । प्रत गुल:- सूपंगुल के वर्ग ( सूच्यं गुल x सूच्यंगुल ) को प्रतरोगुल कहते हैं। जो एक अंगुल लम्बे और अंगुरु पौड़े क्षेत्र के प्रदेशों के प्रमाण है। ( गा.१२) पांगुलः-सूख्यंगुल के घन ( सूच्या सूच्य०४ सूच्य० ) को घनागुल कहते हैं ( गा० ११३) जो एक अंगुल लम्बे एक अंगुल चौड़े और एक भंगुल ऊँचे क्षेत्र के प्रदेशों के बराबर है। जगतारणी:-पाय के अर्घच्छेदों में असंख्यात का भाग देने पर जो एक माप प्राप्त हो उतनी बार घनांगुलों का परस्पर में गुरणा करने पर जगच्छणी होतो है । गा० ११२)। मागप्रतर:- जगच्छेणी के वर्ग को जगस्पतर कहते हैं। लोक:--जगच्छणी के घन को लोक कहते हैं। उपमा प्रमाण का प्रकरण समाप्त हुआ। चय:-मुख भोर भूमि में जिसका प्रमाण अधिक हो उसमें से हीन प्रमाण को घटा कर ऊंचाई अपवा एक कम गच्छ का भाग देमे से चय पास होता है ( गा- ११४.२००,७४६ ।। क्षेत्रफल:-मुम और भूमि के योग को आधा कर पद से गुणा करने पर क्षेत्रफल की प्राप्ति होती है ( गा० ११४ ।। (१) सामान्य, (२) उर्दायत, (३) तियंगायत, (४) यवमुरज, (५) यवमध्य, (६) मन्दरमेरु, ( . ) दृष्य (रेरा) और (८) मिरिकटक इन आठ प्रकारों से अधोलोक का क्षेत्रफल निकाला गया है । ( 1 ) सामान्य, (२) प्रत्येक, (३) अर्धस्तम्भ, (४) स्तम्भ और ( ५ ) पिनष्ट प्रम पाच प्रकारा अपलोग काफल प्रत किया गया है ( गा० ११५--१२." गाथा १६३ बोर १६४ में चय के द्वारा मुख भूमि और पवधन प्राप्त करने का विधान बतलाय। पपा है। गा• १६५ में एक नरक के संकलित बिलों की संख्या प्राप्त करने के विधान का कयन है। पद का जितना प्रमाण हो उतनी बार गुणकार का परस्पर में गुणा कर प्राप्त गुणनफल में से एक घटाकर शेष को एक कम गुणकार से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसका मुद में गुणा करने से उत्तरोत्तर सदृश गुणकार के कम से पदों का गुण संकलित धन प्राप्त होता है। ( गा० २३१) अंग्रेजी में इसे s a{" इस प्रकार दर्शाया गया है। इष्ट गच्छ के बाण में से एक एक कम करके जो प्राप्त हो उतनी बार दो वो को परसह गुणित करके एक लाख से गुरिणत करने पर वलय ग्यास प्राप्त होता है (पा० ३.१)। इष्ट यच्छ के प्रमाण को एक अधिक करने से जो प्राप्त हो उतनी बार दो दो को परस्पर गुणित करके, उसमें से तीन घटा कर एक लाख से गुणा करने पर सूची व्यास प्राप्त होता है ( मा० ३०१)। गा०३१० में लवण समुद्र आदि समुद्रों और दीपों के अभ्यन्तर, मध्य भोर माह सूधियों के व्यास को प्राप्त करने का करणसूत्र है।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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