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________________ । ३४ ] गा. ३१ मे ३१५तमा में बादर व सूक्ष्म परिषि भोर क्षेत्रफल प्राप्त करने का विधान है। विवक्षित द्वीप तथा समुद्र में जम्बूद्वीप सदृश मम प्राप्त करने के लिए करणसूत्र कहा गया है (या. ३१६-१८) गा. ३२७ में वासना रूप से शंख का मुरज क्षेत्रफल निकालने का विधान बतलाया गया है। का अत्यन्त जटिल है फिर भी अनेक बाकृतियों द्वारा उसे समझाने का प्रयत्न किया गया।। गाथा ३३२ में चित्रा पृथ्वी से सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों की ऊंचाई योजनों में दर्शाई गई है, किन्तु इन योजनों को दूरी आज कल के प्रति माप में क्या होगी? या विचारणीय बात है। यदि २ हामनगर माना जाय तो स्थूल रूप से एक योजना .....पों के बराबर अपवा ४५४५.४५ मील के बकायर प्राप्त होता है, किन्तु यदि वर्तमान प्रचलित माप के अनुसार एक कोश में २ मील मान लिये जोय सो एक महायोजन के २०.. कोशों के ४००० मील प्राप्त होते हैं। वैसे अनुमान यह है कि एक महायोजन में मीलों का प्रमाण ४००० से अधिक ही प्राप्त होना चाहिये, किन्तु इस त्रिलोकसार ग्रन्थ में स्थल रूप से ४०० मील मानकर ही माप दर्शाया गया है। इस माप के अनुसार पृथ्वोतल से तारों की ऊंचाई ३१६००.० मील, सूर्य की ३२०००.० मील, चन्द्रमा की ३५२०००० मील, नमत्रों की ३५३६००. मौल, बुध की ४२०० मील, शुरू की ३५६४ मील, गुरु की ३५७६००० मील, मंगल की ३५८८००० मोल और शनि को ३६..... मील प्राप्त होती है। अर्थात संपूर्ण ज्योतिषी देव पृथ्वीतल से ३१६०००• मोल को ऊंचाई से प्रारम्भ कर ३..... मोल फी ऊंचाई सक स्थित हैं। सर्वज्योतिविमान अर्धगोने के सदृश ऊपर को अर्थात् ऊध्वंमुख रूप से स्थित है, उनका केवल नीधे वाला गौलाकार भाग ही हमारे द्वारा दृश्यमान है, शेष भाग नहीं ( पा. ३३६ )। ढाई द्वीप के ज्योतिषी देवों के समूह मेरु पर्वत को १११ योजन अर्थात् etc.. मील छोड़कर प्रदक्षिया रूप से यमन करते है (गा.३४५)। सुमेरु पर्वत के मध्य से प्रारम्भ कर अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र के एक पाश्वं भाग पर्यन्त का क्षेत्र अषं राजू प्रमाण है। अवशेष अपंगजू के कितने अर्धच्छेद कहाँ कहाँ प्राप्त होते हैं यह विषय गा० ३५२ से ३५॥ तक स्पष्ट किया गया है। ३. और ये दो गापाए ज्योतिबिम्बों की संख्या जाने के लिए गच्छ कहा गया है । ( दोनों गामाए" बटिल है।) पा० ३.३ की टोका में केवल लवण समुद्र स्थित सूर्य का सूर्य से और चन्द्र का चन्द्र से अन्तर दिखाया गया है किन्तु हिन्दी टीका में पातको लण, कालोदक समुद्र धौर पुष्करा दीप के सूर्यचन्द्रों का अन्तरमी स्पष्ट कर दिया पया है। पविशशि के गमन करने की क्षेत्रगली को चारक्षेत्र कहते हैं अथवा चारों ओर का क्षेत्र संचरित होने से बह चार क्षेत्र कहलाता है। जम्बूद्वीप के दो चन्द्रों और दो सूर्गों के प्रति एक एक हा चार क्षेत्र होता है जिसका प्रमाण ५१० योजन अर्थात २.४६१४७ मील है ( गा० ३७४ )। इस चार मेत्र में सूर्य के पमन करने की १५ लिया है, प्रत्येक वली का प्रमाण योजन ( ३१४७३॥ पोल)
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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