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________________ है। से पपग्मास भी कहते हैं । एक पजी से दूसरी गली का अन्तर २ योबन (६... मोल ) है अतः सूर्य के प्रतिदिन पमन क्षेत्र का प्रमाण २ योजन अर्यात १११४७१ मोल है इसी प्रकार उसो चार क्षेत्र Rt यो.) मैं चन्द्रमा को १५ गलिया है। प्रत्येक गली का प्रमाण योजन (३१०२९ मो) है और एक गली से दूसरी गली का अन्तर ३५० योजन (१२००४ मील) है, तथा चन्द्रमा के प्रतिदिन गमन क्षेत्र का प्रमाण ३६२२० योजन ( १४५६७६१ मोल है। ( पा० ३७७ )। पा. ३७८ में "सुरगिरिबदनीण" पद से ऐसा ज्ञात होता है कि सूर्य के सदृश चन्द्र को दिवस गति, मार्ग, वन्तर एवं परिधि गादि का वर्णन होना चाहिए मा, मिस्तु संस्कृत रोका में नहीं किया गया है। हिन्दी टीका में कुछ दशा दिग गया है। सूर्य चन्द्र की सुमेह के समीप वाली गली को सम्पन्तपीथी बार लवरण समुद्र स्थित अन्तिम गली को बाह्मवीथी कहते हैं। अपनी जिस परिधि को सूर्य ६. मुहूत ( २५ घंटे ) में पूर्ण करता है उमी प्रमाण वाली उमी परिधि को चन्द्र १५३ (कुछ कम २४ घंटे) में समाप्त कर पाता है। सूर्य अम्पनर ( प्रथम ) वीपी में एक मुहूर्त में ५२५११: योजने (२१.०५६३४ मील) और एक मिनिट में ४२७६२३३२ मील चलता है । मध्यम वीयो में एक मुहूर्त में ५२७ योजन (१९५१३४६६ मील) और एक मिनिट में ४३१५६ मील पाता है, सपा अन्तिम (बाह । वीथी में एक मुहूर्त में ५६०५ योजन { २१२२०९३३३ मील ) पलता है और एक मिनिट में ॥२१०२॥ मील चलता है। इसी प्रकार चन्द्रमा अभ्यस्तस वोपी में एक मुहूर्त में ५.३ पोवन ( २०२६४२५1111 मोल ) और एक मिनिट में २१Ur1 मील चलता है और बास वीथी में एक मुहूर्त में ५११५ पोजन ( २०७२.४१५ मोल ) पौर एक मिनिष्ट में ४३१५७८ मील चलता है (पा- २८०)। प्रथम बौथी में भ्रमण करता हा सूर्य जब निषध कुळाचल के उत्तर तट से १४६२१४१ योजन पर्वत के ऊपर आता है तभी भक्तक्षेत्र में उदिा होते हुए दीखता है और तभी अयोध्या नारी के मध्य स्थित चक्रवर्ती के द्वारा देखा जाता है, जिसका अध्वान ४७२६३३० योजन ( १८१०५३४०० मील) है। इसी प्रकार प्रथम पीथी में भ्रमण करता हुआ सूर्य जब निषधाचल के दक्षिण तट पर कुछ कम १५७५ योजन वाता है तब मस्त हो जाता है (गा.९१ }1 उनसेतर दुगुण दुगुण संस्थाओं के संकलित घर को प्राप्त करने के लिए करणसूत्र पा. २६१ को टोका में है। अभ्यम्लर बीर्थ में चन्द्रमा एक मिनिट में जितना पलता है सूर्म उससे १४४२११ मील अधिक चलता है और उसी एक मिनिट में नक्षत्र सूर्य को अपेक्षा ११९६३ मोल अधिक चलते है। गा..०३" गाथा ५६०, ४६१, ६३, १४, ७६५ मोर ७६६ में धनुषाकार क्षेत्र को जीवा, बाण, धनुष एवं वृत्तविम्म निकालने के लिए रणसूत्र विये पये है. तथा इसी कारण सूत्रों के आधार पर
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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