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कुरुक्षेत्र के धनुषाकार क्षेत्र की जीवा आदि निकाल कर उसी प्रकार भरस आदि क्षेत्रों और हिमवत आदि पर्वतों की जीवा आदि निकालने की सूचना दी गई है । गा० ७६२ में धनुषाकार क्षेत्र का क्षेत्रल प्राप्त करने का विधान दर्शाया गया है। ना ३८ में जम्बूदीपस्य हिमवत् आदि पर्वतों पोर भरतादि क्षेत्रों का पाए निकालने का विधान बतलाया गया है। यहाँ कृति स्वरूप संख्या का वर्गमूल निकालने के बाद अवशेष मचे प्रकों को छोड़ दिया गया है। जमेः-दक्षिण भरत को धनुषकृति का प्रमाण १४४११५५३१० है, इसका वर्गभूल " होता है और २१४८७ अंक अवशेष बचते हैं जिनका ग्रहण नहीं किया। विजया को धनुषकति के वर्गमन प्राप्ति के बाद २६ अवशेष घंक त्याज्य है। इसी प्रकार अन्यत्र जानना चाहिए।
०१. पृ० १५पर नाना प्रकार की आकृतियों द्वारा वृत्ताकार क्षेत्र की परिधि व क्षेत्रफल के करण सूत्र को सिद्ध किया गया है। गा• ६१ पृ.८५ पर गेंद मादि गोल वस्तु के समघनाकार का घनफल होता है । विष्कम्भ और परिधि का अनुपात १.का वर्गमूल है। इसको अनेक नापतियों द्वारा अवमानमा मद्ध किया गण है। गा• १०३ पृ. 8-10 पर वृत्ताकार के सूक्ष्मक्षेत्र को चतुरन रूप करके सिद्ध किया है । गा० २३१ पृ० २१४ पर दृष्टान्त द्वारा नाना प्रकार से गुणसंकलम धन के. करणसूम को सिद्ध किया गया है। पा. ३०९ पृ. २५४ पर वलय व्यास और सूचीव्यास प्राप्त करने के लिए करणसूत्र की वासना का विवेचा किया पया है।
विशेससार की सबसे जटिछ गा. ३१७ (पृ. २७१ ) को टीका में अत्यन्त कुशलता पूर्वक नाना प्रकार की आकृतियों द्वारा शंख का क्षेत्रफल प्राप्त करने का प्रयास किया गया है, और भी अनेक गाथाओं में अनेक चित्रों एवं पार्टी द्वारा गणित सम्बाधी जटिल प्रशों को सुगम करने का प्रयास किया गया है।
भी ने मिचन्द्राचार्य कृत त्रिलोकसार रूपी गगन माल पर करणसूत्र कपी मनेक तारागणों की अनुपम छटा दिखाई देती है, जिनकी सिद्धि के लिए श्री माषवचखाचार्य ने अपनी संस्कृत टीका में पत्र तप सर्वत्र वासमा का प्रयोग किया है। यद्यपि करण सूत्र सरन है किन्तु उनकी वासना बहुत जटिल है। वासना के अतिरिक्त मापने अपनी टीका में कुछ मरिणत सम्बन्धी अन्य नियमों का भी उल्लेख किया है। ये नियम गणित के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
परिशिष्ट में करणसूत्र, वासना और नियमों का विवरण दिया गया है । इस ग्रन्थ में कुछ ऐसे भी करणसूत्र, वासना एवं नियम है जिनका सम्पत्र उल्लेख नहीं पाया जाता।
. इस प्रकार यह त्रिलोसार अंग लोकोत्तर गणित की अनेक विशेषताओं से सुशोभित होता हुना अपने आप मे परिपूर्ण एवं द्वितीय है।