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________________ गाथा: ५९ लोकसामान्याधिकार कर एक एक की वृद्धि करते हुये केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल तक के समस्त वर्ग स्थान इस धारा के स्थान है। कृतिधारा के स्थान को तत्मद कहते हैं, और वह पद केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल को संख्या प्रमाण है। इस धारा में जघन्य संन्यात (१) तो वर्ग रूप ही हैं । जघन्य असंख्यात ( १६ ) का वर्गमूल निकाल कर उसमें मे एक बटाना, जो अवशेष बचे उसकी कृति ( वर्ग ) करना । जो प्रमाण प्राप्त हो वह असंख्यात के अधस्तनवर्ता ( भरख्यात ) का कृतिधारा में उत्कृष्ट भेद है । वैसे-अंकसंदृष्टि :-मानलोजघन्य असंख्यात का प्रमाण १६ है, उसका वर्ग मूल ४ प्राप्त हुआ। चार में से एक घटाया (४-१=३) तीन रहे, ३ का वर्ग ( ३ ४३)९ प्राप्त हुआ। असंख्यात के नीचे जो संख्यात है, इस धारा में संख्यात का उत्कृष्ट ९ है । वैसे-अंक संदृष्टि में उत्कृष्ट संख्यात १५ माना गया है. और ९ के बाद १० को आदि लेकर १५ पर्यन्त सभी संख्याए १ के अंकमे बड़ी हैं। किन्तु वे किसी भी संख्याके वर्ग से उत्पन्न नहीं हई अतः उत्कृष्ट स्थान को प्राप्त नहीं हुई। ६ की उत्पत्ति ३ के वर्ग में हुई है, इसलिये इस धारा का उत्कृष्ट ९ ही है। इस धारा में जघन्य परोतासंख्यात, जघन्य युक्तासंख्यात, जघन्य-असंख्यातासंख्यात, जघन्य परीनानन्त. जघन्य युक्तानन्त, गधन्य अनन्तानन्त और उत्कृष्ट अनन्तानन्त हैं । किन्तु उत्कृष्ट संक्यात, उप परीतामख्यान, युक्तासमान, सरका सांगातासंभात उत्कृष्ट परीतानन्त और उत्कृष्ट युक्तानम्न नहीं हैं । इसलिये अपने अपने उत्कृष्ट से उपरितन जघन्य के वर्गमूल में से एक कम करके वर्ग करने पर कतिधारा में अपना अपना उत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होता है। अथाकृतिधारोच्यते दुप्पहुदिरूपवज्जिदकैवलगाणावसाणमकदीए । सेमविही विसमं वा सपणं केवलं ठाणं ।। ५९ ।। द्विप्रभृति रूपवजितकेवलज्ञानाबसातमकृतौ । शेषविधिः विषमा वा स्वपदोनं केवलम् स्थानम् ।। ५६ ॥ दुप्प । द्विप्रमृतिः रूप जितकेवलमानमवसानं प्रकृतिधारायां शेषविधिः संख्याताबीना जघन्यमुस्कृष्टं व विषमधाराक्त "जुबमवरमवरं बरं वरं होवि सम्वत्य" इति ज्ञातव्यमित्यर्षः। इतिस्पानरहितत्वात् स्वप्रथममूसोनं केवलज्ञानं स्थानं स्यात् । प्रसंदष्टौ २, ३, ५, ६, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, के १५ ॥ ५ ॥ ५. अकृतिधारा का स्वरूप : गाचा :--दो को आदि लेकर एक कम केवलज्ञान पर्यन्त अकृति धारा है इस पारा की शेष विधि विषम धारा सदृश है । केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल से कम इस धारा के स्थान है। क्योंकि वर्गरूप संख्याएं इस धारा में नहीं हैं ।। ५९ ॥ विशेषार्थ:-जो संख्याएं स्वयं किसी के वर्ग से उत्पन्न नहीं होतीं वे संख्याएं अकृति धारा की हैं। कृतिधारा की संख्याओं के अतिरिक्त दो से प्रारम्भ कर एक कम केवलज्ञान पर्यन्त की सभी
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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