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________________ ५२ গিলামা गाथा :५८ समविषम धारा के स्थानों का प्रमाण और उन्हें प्राप्त करने की विधि : गाथा :- सम और विषम दोनों धारावों के स्थान केवलज्ञान के अचं प्रमाण ( केवलज्ञान से माघे ) होते हैं। क्योकि आदि और अन्त स्थान को शुद्ध करके ( अधिक प्रमाण में से होन प्रमाण को घटा कर ) वृद्धि चय का भाग देने पर जो लब्ध आवे उसमें १ अक मिलाने से स्थानों का प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।। ५७ ॥ _ विशेषार्थ :- "आदीअन्तेसुद्ध, यडिहिदे इगिजुदे धारणा' इम करण सूत्रानुमार आदि और अन्न स्थान को शुद्ध करने अथति आदि और अन्त के प्रमाण में जो अधिक हो उममें से हीन प्रमाण घटाना चाहिये प्रत्येक स्थान पर दो की वृद्धि हुई है, अत: दो का भाग देकर जो लन्ध आवे उममें एक जोड़ देने से स्थानों की प्राप्ति हो जायगी। जैसे :-ममधारा का अन्तस्थान ६५५३६ और आदि स्थान दो है। प्रत्येक स्थान पर वृद्धिचय २ है, अत: ६५५३६-२-६५५३४ : २- ३२७६७ +१=३२७६८ ये केवलज्ञान के अर्धप्रमाण समधारा के स्थान हैं। इसी प्रकार :- विषमघाग का अन्तस्थान ६५५.३५ है और आदि स्थान १ है। वृद्धिचय २ है । अनः ६५५३५-१६५५३४५२-३२७६७+ १८. ३२७६८ ये विषम धारा के केवलज्ञान के अर्घप्रमाण स्थान हैं । अथ कृतिधारामाह : इगिचादि केवलंतं कद्री पदं तप्पदं दी अवरं । इगिहीण तप्पदकी हेष्टिममुकाम सम्वत्थ ।। ५८ ।। एक चत्वार्यादिः केवलान्ता कृतिः पदं तत्पदं कृतिः अबरं । एकहीनतत्पदकृतिः अधस्तनमुत्कृष्ट सर्वत्र ॥ ५८ ।। इगिवादि। एक स्वार्याणिः केवलज्ञानान्ता कृतिधारापात् । पदं ऋतिपारास्थानं तत्पदं रेवलनामस्य प्रमममूलमात्र संख्यातादीनां जघन्यं कृत्पात्मकमेव एकहोमस्यासंख्यातादोनो प्रथममूलस्य कृतिरेव सर्वत्रापस्तनायासनोकृष्टप्रमाणं भवति । पसंदृष्टी १, ४, ६, के १६॥ ५८ ।। ४, कृतिधारा का स्वरूप : जापार्ष:-एक, चार आदि केवलज्ञान पर्यन्त कृतिधारा होती है। केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल पर्यन्त जो वर्गमूल हैं उनका वर्ग करने से जो राशियां उत्पन्न होती है वे ही इस धारा के स्थान हैं । सर्वत्र जघन्य स्थान तो कृतिरूप हो हैं । जमाय स्थान के वर्गमूल में से एक पटाकर उसकी कृति करने पर अपने से अधस्तन का उत्कृष्ठ भेद प्राप्त हो जाता है ॥ ५८ ।। ___ विशेषार्थ :-- कृति नाम वर्ग का है, अतः जो संख्या वर्ग से प्रसन्न है अर्थात किसी भी संस्था का परस्पर में गुणा करने से उत्पन्न होती है वह कृतिधारा की संख्या है। जैसे :-१४१-१, २४२ -४, ३४३-६, ४४४=१६, २५, २६ ... ... ... ....( २५४ ) =६:४५१६, ( २५५ ,२= ६५०२५ और अन्तिम स्थान ( २५६ ) == ६५५३६ उत्कृष्ट अनन्तानन्त केवलज्ञान स्वरूप है। अर्थात् एक में प्रारम्भ
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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