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गाथा : ५३-५४
लोकसामान्यत्रकार विशेषापं:-जितने विषयों को शुतज्ञान पुगपत् प्रत्यक्ष जानता है, उसे संक्ष्यात कहते हैं । जितने विषयों को अवधिज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है, उसे असंख्यात कहते हैं । तथा जितने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है, उसे अनन्त कहते हैं । इस परिभाषा के अनुसार 'अपुद्गल परिवर्तन भी अनन्त है, क्योंकि वह अवधिज्ञान के विषय से बाहर है, किन्तु वह परमार्थ अनन्त नहीं है, क्योंकि मपुद्गल परिवर्तन काल व्यय होते होते अन्त को प्राप्त हो जाता है अर्थात् समाप्त हो जाता है । आय के विना व्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त न हो वह राशि अक्षय अनन्त कहलाती है। अथ चतुदंशधाराणां नामानि निवेदयति
धारेत्थ सव्वसमकदियणमाउगइदरबेकदीविंदं । तस्स पणाधणमादी अंतं ठाणं च सव्यस्थ ।।५३|| धारा: अव सवंसमकृतिघनमातृकेनरद्विकृतिवन्दम् ।
तस्य घनाधनमादि अन्नं स्थानं च सर्वत्र ॥ ५३ ॥ पारस्य । पाराः पत्र शास्त्रे निमप्यन्ते । सबंधारा, समपारा, कृतिधारा, बनवारा, कृतिमातृकापारा, घनमातृकापारा, समाविम्प इतरा विषमबारा, प्रकृतिवारा, पामारा, प्रकृतिमातृकापारा, प्रधनमातृकाधारा प्रति, विरूपवर्गवारा, विष्पधनधारा, हिपघनाघमपास पासामान्तरपामानि सर्वत्र धारासुकाध्यन्ते ॥५३ ॥
संख्यात असंख्यात और अनन्त की सिद्धि के लिये निम्नलिखित चौदह धाराओं का वर्णन किया जा रहा है :चौदह धाराओं के नामः
गायार्य :-यहाँ धाराओं का वर्णन करते हैं । १सर्वधारा २ समधारा ३ कृतिधारा ४ बनधारा ५ कृतिमातृकाधारा ६ धनमातृका धारा तथा इनकी प्रतिपक्षी ७ विषम धारा ८ अकृति धारा, ९ अधन धारा, १० अकृतिमातृका धारा ११ अघनमातृका धारा १२ द्विरूप वर्ग धारा १३ द्विरूप धन धारा और १४ द्विरुप धनाधन धारा । ये चौदह धाराएं हैं। इनके आदि स्थान, अन्तस्थान और स्थान भेद धाराओं में सर्वत्र कहते हैं ।। ५३ ।। अथ सबंधारास्वरूप निरूपयति
उत्चेव मन्त्रधारा पुथ्वं एमादिगा हवेज जदि । सेसा समादिधारा तत्थुप्पण्णेति आणाहि ।। ५४ ।।
उक्तं व सर्वधारा पूर्व एकादिका भवेत् यदि ।।
शेषाः समादिधारा: तत्रोत्पन्ना इति जानीहि ।। ५४ ।। उत्तेव । उक्तं सर्वधारा स्यात् । पूर्वमेकारिका भवेदि, शेषाः समाविषारा सस्तित्रोपमा हति मानीहि । प्रसाटो मातम्या "१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, के. १६" ॥ ५४॥