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________________ त्रिलोकसार गाथा: ५२ उपयुक्त प्र योग से जो राशि हो उन पुनः तीन वार वगित संगित करें, अर्थात पूर्वोक्त प्रकार से विरलनादि क्रिया द्वारा शलाका चय को समाप्ति कर जो महाराशि रूप लब्ध प्राप्त होगा वह भी केवलज्ञान के बगबर नहीं होगा, अतः केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में से उक्त महाराशि घटा देने पर जो लब्ध प्राप्त हो उसको पैसे का वैमा उसी महाराशि में मिला देनेपर. केवलझान के अविभागप्रतिच्छदों के प्रमाण स्वरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त हो जागा ॥ ४८ मे ५१ ॥ विशेषार्थ : - तीन गाथाओं का विशेपार्थ गाथार्थ सदृश ही है। ( गा० ५१ ) केवलजान के अविभागप्रतिच्छेदों की संख्या सर्वोत्कृष्ट है । वह संख्या मध्यमअनन्तानन्त स्वरूप जीय, पुद्गल, काल और आकाश के प्रदेशों एवं समयों को गुणा करने में अथवा वगित मंच गित करने से भी प्राप्त नहीं होती, अत: उस सर्वोत्कृष्ट संख्या को प्राप्त करने का मात्र एक यही उपाय है कि उममें से मध्यम प्रनतानन्तको घटा कर जो शेष रहे वह उसी मध्यम अनन्तानन्त में जोड़ देने से रस्कृष्अनन्तानन्त हो जाला है। जैसे :-५०० में से १०० को चटाने पर । ५..-१०.)= ४०० कोष रहते हैं। इस रोप ४०० को १८० में जोड़ देने से ( ४०० + १00)=५.० हो जाते हैं। केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद सर्वोत्कृष्ट अनन्तारान्त स्वरूप हैं, अत: केवलज्ञान में यह शक्ति है कि ऐसे अनन्तानन्त लोकालोक होते तो उनको भो जान लेता। किन्तु उम शक्ति की व्यक्ति उतनी ही होती है जितने कि जेय हैं । श्री कन्यकन्दाचार्य ने प्रवचनसार की गाथा मं० २३ में जो यह कहा है किया गेय पमाणं' अर्थात ज्ञान जय प्रमाण है वह केवलज्ञान को शक्ति की व्यक्ति की अपेक्षा कहा है। ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जो केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में अधिक हो, अतः केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों की संख्या को सर्वोत्कृष्ट अनन्तानन्त कहा है। संभ्या प्रमाण में इमसे बड़ा कोई प्रमाण नहीं है। अथ श्रुतज्ञानादीनां विषयस्थान निरूपयति जावदियं पत्रकावं जुगवं मुदओहिकेवलाण हये । तादियं संखेजमसंखमणेतं कमा जाणे ॥५२॥ यावत्कं प्रत्यक्षं युगपत् श्रुनावधिकेवलानां भवेत् । तावत्कं संख्येयमसंख्यमननं कुमान् जानीहि ॥१२॥ जाववियं । यावन्मात्र प्रत्यक्षं पुगपर धुतावषिकेवलज्ञानाना भवेत् तावमात्र संस्थालमसंख्यातमनन्तं कुमाजानीहि ॥५२॥ श्रतज्ञानादिकों के विषय रूप स्थानों का निरूपण: गावार्थ:-जितने विषय, युगपत् प्रत्यक्ष धृतज्ञान के हैं, अवधिज्ञान के हैं, और केवल ज्ञान के हैं, उन्हें कम से संख्यात, असंख्यात और अनन्त जानो ॥ ५२ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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