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गाया। १९५-१९६ ..
लोकसामाश्याधिकार
मर्हति । छायामात्रमेवार्थः ॥१४॥
इतने दुःख साधनों द्वारा नारकी जीव क्या मरण को प्राप्त होते हैं ? ऐसी शंका होने पर
कहते हैं :--
गाथा – सम्पूर्ण शरीर को हजारों बार छिन्न भिन्न कर देने पर भी उन नारकी जीवों का काल में मरा नहीं होता। पारे के करणों के सदृश नारकी जीवों के शरीर के टुकड़े भी संघात को प्राप्त हो जाते हैं । अर्थात् पुनः पुनः मिल जाते हैं ।। १९४ ।।
विशेषा:- जिस प्रकार पारे के कहा भित्र भिन्न नहीं रह सकते आकर एक हो जाते हैं, उसी प्रकार नारकियों के शरीर खण्ड खण्ड हो जाने जाते हैं। आयु पूर्ण हुए बिना उनका सरण नहीं होता, चाहे कितना ही दुःख दु:खसाधनैः सर्वदा सर्वे दुःखमाप्नुवन्ति किमित्यत्राह -
९९१.
शीघ्र ही चारों ओर से
पर भी मिल कर एक हो क्यों न हो ।
तित्ययरसंतकसूत्रसणं णिरए निवारयति सुरा । छम्मासागसेसे मग्ने अपलाणमालको ।।१९५ ।। तीर्थंकर सत्कर्मोपसर्ग निरये निवारयन्ति मुराः । मासायुकशेषे स्वर्गे अम्मालाङ्कः ॥ १९५ ॥
जोवानामुपसर्ग निरये निवारयन्ति सुराः षण्मासाः शेषे स्वर्ग
विश्व | ती
इलाममालाङ्क १॥१६५॥
इन दुःख साधनों के द्वारा क्या हमेशा सर्व नारकी दुःखको प्राप्त होते हैं ? इसका समाधान:पार्थ - नरक में जिन नारकी जीवों के तीर्थंकर नाम कर्म सतामें है, उनकी प्रयु के माह शेष रहने पर देवगण उन नारकियों का उपसर्ग निवारण कर देते हैं, तथा स्वर्ग में भी तीर्थक प्रकृति की सत्ता वाले देवों की बायु छह माह शेष रहने पर माला नहीं मुरझाती ॥ १९५ ।।
विशेषार्थ:- तीर्थङ्कर प्रकृति की सभा वाले नारकियों की आयु छह माह शेष रहने पर देव उनके उस दूर कर देते हैं तथा इसा प्रकृति की सत्ता वाले देवों को छह माह वायु शेष रहने पत्र माला नहीं मुरझाती ।
अथ तेषां विलनप्रकारमह
अव गाउ पुणे वादाहदब्भपडलं था | रयाणं कायां सच्चे सिग्धं विलीयंते ॥। १९६ ।।
अपवर्त्यश्वायुष्ये पूर्ण वाताहताभ्रपटलमिव । मेरयिकारणां कायाः सर्वे शीघ्र विलीयन्ते ।।१९६ ।।
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