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________________ = त्रिलोकसार बाया : १६३-१९१४ गाथार्थ:- प्रथम धर्मा पृथ्वी में उत्पन्न हुए नारको जीव वानादि निकुष्ट प्राणियों के सड़े हुए फलेवरों की दुर्गन्स से भी अधिक मिट्टी खाते हैं। वह दुर्गन्धित मिट्टी भी उन्हें अपनी भूख- प्रमाण नहीं मिलती अर्थात् अल्प मात्रा में हो मिलती है, जिससे क्षुधा शांत नहीं होतो | वंशादि पृथ्वियों के नारको इससे असंख्यातगुणित अशुभ मिट्टी का भक्षण करते हैं ।१९२।। विशेषार्थ:- सुगम है । १९० अथ तथाहारदुःखकरणसामर्थ्यं वर्णयति पदमासनमिह खिसं कोसद्ध गंधदो विमारेदि । कोसद्धद्धविराद्वियजीचे पत्थरक्कमदो || १९३ ।। प्रथमानमिह क्षिप्त' कोशाधं गन्धतो विमारयति । कोशाधिकधरास्थितजीवान् प्रस्तरक्रमतः ॥ १९३॥ पहा | प्रथम पृष्बोप्रथम पटलानं छह मनुष्यक्षेत्रे क्षिप्तं चेतु क्रोशाषं गम्बतो बिमारयति । कोशाधिरास्थितान् जीवान् मतः परं प्रस्तरतः विमारयति । नारकियों के उस आहार में कितना दुःख देने की क्षमता है। उसे कहते हैं: गाथार्थ :- प्रथम नरक के प्रथम पटल के नारकियों के भोजन की वह दुर्गन्धमय मिट्टी यदि मनुष्य क्षेत्र में डाल दी जाय तो वह अपनी दुर्गन्ध से आधे कोस के जोवों को मार डालेगी। इसी प्रकार प्रत्येक पटल के बहार की मिट्टी कम से आधा ग्राधा कोस अधिक पृथ्वी स्थित जोदी को मारने की क्षमता वाली है ॥ १६३॥ विशेषार्थ::- प्रथम नरक के प्रथम सीमन्त नामक पटल के नारकी जिस मिट्टी का आहार करते हैं, वह मिट्टी अपनी दुर्गन्ध से मनुष्य क्षेत्र के अर्ध कोस में स्थित जोवों को मार सकती है। द्वितीय निरय पटल के आहार की मिट्टी एक कोस के तथा तृतीय रौरव पटल के आहार की मिट्टी अपनी दुर्गन्ध से १३ कोल में स्थित जोवों को मारने की सामध्यं वाली है। इसी क्रम से प्रति पटल बाधा आषा कोस वृद्धिगत होते हुए सप्तम पृथ्वी के अवधिस्थान नामक ४६ में पटल के नारकी जिस मिट्टी का आहार करते हैं, वह मिट्टी अपनी दुर्गन्ध से मध्यलोक में स्थित साढ़े चोवीस ( २४३ ) कोस के जीवों को मारने की सामध्यंवाली है । अथ एते दु:ख साधने प्रियन्ते किमित्याशङ्कायामाह - पण मरंति ते भकाले महत्सखुचोवि दिण्णसन्दंगा | गच्छति तस्स लवा संघादं हृदम सेव || १९४ ॥ ॥ प्रियन्ते ते अकाले सहस्रकृस्त्रोऽपि त्रिसर्वाङ्गाः । गच्छन्ति तनोः लखाः सङ्घातं सूतकस्येव ॥ १९४ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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