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बिलोकसार
बाथा : १९७-१९८
पणषट्ट । खायामात्रमेवा:मरण के उपरान्त नारकियों के देह विलय का विधान कहते हैं :
गापा:-अपनी अनपवायु के पूर्ण होते ही नारकियों का सम्पूर्ण शरीर उसी प्रकार विलय को प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार पवन मे साड़ित मेध पटल विलय हो जाते हैं ।।१९६॥
विशेषाय:-जिन जीवों की भुज्यमान मायु का कदली घात नहीं होता अर्थात् जहाँ अकाल मरण नहीं होता, उसे अनपवायु कहते हैं । जिस प्रकार वायु से आहत मेघ पटल विलय को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार अनपवत्र्य आय समाप्त होते ही नारकियों का सम्पूर्ण शरीर विलय हो जाता है। अथ तैरनुभूयमानदुःखभेदानाह
खेचजणिदं प्रसादं मारीरं माणसं च मसरकयं । भुजंति जहावसरं भवद्विदीचरिमममयोचि ॥१९७||
क्षेत्र नितं असातं शारीर मानसं च असुरकृतम् ।।
भुञ्जते यथावसर भवस्थितेश्चरमसमयान्तम् ॥१९॥ खेत । पन्सम पर्यन्तम । छायामात्रमेवाः ॥१६॥ नारकियों के अनुभव में आने वाले विविध प्रकार के दुःख
गापा:-नारकी जीव भय स्थिति के चरम समय पर्यन्त यथावसर क्षेत्रनित, मानसिक, शारीरिक और असुरकन प्रसाता भोगने हैं ।। १९७॥
विशेषार्थ:-नरकों में मुख्यतः बार प्रकार के दुःख हैं। क्षेत्रसम्बन्धी, मानसिक, शारीरिक और असुरकृत । नरक क्षेत्र के सम्बन्ध से सत्पन्न आतापादि दुख क्षेत्रजनित हैं संक्लेश परिणामों से उत्पन्न आत द्रावि ध्यान मानसिक दुःख है। शरीर में उत्पन्न नाना प्रकार के रोगादि से उत्पन्न होने वाली वेदना शारीरिक दुःख है तथा तृतीय नरक पर्यन्त असुरकुमार जाति के भवनवासी देवों द्वारा धादि से उत्पन्न घेदना भसुरकत दुःख है । इसके अतिरिक्त परस्पर उदीरित दुःख को भी वे नारको भोगते हैं। अथ प्रतिपटल तदायुधन्योत्कर्घ गाथात्रयेणाह- .
पदमिदे दसणउदीवाममहस्साउगं जहपिणदरं । तो गउदिलक्ख जेढ असंखपुष्वाण कोडी य ॥१९८॥
प्रथमेन्द्र के दशनवतिवर्षसहस्रायुष्कं जघन्येतरत् । ततः नवतिलक्ष ज्येष्ठ असंख्यपूर्वाणां कोट्याश्च ॥१९८||