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________________ १२ त्रिलोकसार पाषा: १५-१७६-१७७ संसासगिरर चरिछ भारं जहाभण । इगिजोपणमद्धजुदं जोयणतिदयं हवे जेह ।।१७।। जोयणसत्तसहस्सं मसंखवित्थारजुत्त णिरयाण । अंतरमवरं णेयं जेट्टमसंखेजजोयणयं ॥१७६।। संख्यातव्यासनिरये तरश्चमन्तरं जघन्यमिदं । एकपोजनमधंयुत्त योजनत्रितयं भवेत् ज्येष्ठम् ।।१४५॥ योजनसमसहन असंख्यविस्तारयुक्तनिरयाणाम् । अन्तरमवरं ज्ञेयं ज्येष्ठमसंख्य योजनकम् ॥१७६|| संखेन । संख्यातव्यासनरकारले प्रकोणके तिर्यगम्तरं जघन्यमि एकयोजनमयुतं । पोजना भवति ज्येष्ठम् ॥१७॥ बोयण । पोजनसप्ससहस्र प्रसंख्यातविस्तारयुतारका तिर्यगन्तरमबरं वं ज्येष्ठमसंस्मेययोजनकम् ॥१६॥ बिलों का तिर्यक अन्तराल दो गाथाओं द्वारा निरूपित किया जाता है गावार्थः-संख्यात योजन न्यास वाले नरक बिलों का जघन्य तियम् अन्तर १३ योजन और उत्कृष्ट तिर्यग् अन्दर ३ योजन है ॥१७॥ असंख्यात योजन व्यास वाले नरक बिसों का जघन्य तिर्यग् अन्तर सात हजार योजन और उत्कृष्ट नियंग अन्तर मसंस्थात योजन प्रमाण है ।।१७६|| विशेषार्थ:-सुगम है। प्रय तेषां बिलानां संस्थानादिकं निरूपयति . वजणमिचि भागा वकृविचउरंसबहुविहायारा । णिरया सयावि भरिया सविदियदुक्खदाईहि ॥१७७।। वजपनभित्तिभागा वृत्तत्रिचतुरस्ररहविधाकाराः। निरयाः सदापि भृताः सर्वेन्द्रियदुःखदायिभिः ॥१७॥ पज । बन्धनभितिभागा पुतश्यलचतुरस्राइविषाकारा निरयाः सदापि भृताः सन्द्रिपदुःखबाधिभिव्यः ॥७७।। -...'-..- -. -. --..---- - १. असंचय ( म.)।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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