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त्रिलोकसार
गाथा : ६५७ से ११ पञ्चमचरमे पक्षाष्टमासत्रिवर्षे अवशेषे तेन ।। मुनिप्रथमपिण्डग्रहणे सन्यसनं कृत्वा नियस त्रयं ।।८५६ ।। मौष में जायन्ते कातिकामावस्या स्वाती पूर्वाल्हे । एफजलधिस्थितयो मुनयः शेषत्रय: साधिक पल्यं ।। ६६० ॥ तवासरस्य आदिमध्यान्ते धर्मराजाग्नीनां ।
नाशः ततो मनुषया नाना मत्स्याद्याहारा: ॥ ८६१ । इदि। इत्येवं प्रतिसहस्रवर्ष विशतिकल्किमामसिक्रमे सति शरमो मतमन्यनाम मनामन्यन: कस्को भविष्यति ॥ ९५७ ।।
इह । तस्मिन् काले इन्द्र राजाचा शिष्यो बोराङ्गवश्वरमः साधु: प्रापिका सर्वमीः भाषकोऽगिसो वरषाविका पंगुसेनाऽपि ।। ८५८ ||
पचम । ते चत्वारः पश्चमकासचरमे एकपक्षे प्रहमासे त्रिवर्षे अवशिष्टे सति तेन राशा मुनिप्रथमपिण्णग्रहणे ते सति विषसत्रयं सल्यसनं कृत्वा ।। ६५ ।।
सोहम्मे । तत्र मुनया 'कातिकामावस्या स्वातिनक्षत्रे पूर्वाह्न एकसागरोपमायुषः सौधर्मे जायते शेषास्त्रयस्तव साविकपस्यायु जायन्ते ॥८६॥
तम्बासर । सदासरस्यादौ मध्ये पन्ते च सपाम धर्मस्य राशोऽग्मेश्व माशः । ततः परं मनुष्या नम्ना मत्याचाहारा ॥८६१ ॥
अब अन्तिम कल्कि का स्वरूप पांच गाथाओं द्वारा कहते हैं :
गाचार्य:-इम प्रकार एक एक हजार वर्ष बाद एक एक कल्कि होगा, तथा बीस कलिंकयों का अतिक्रम हो जाने पर सम्मागं का मन्थन करने वाला जलमन्यन नामका अन्तिम कल्कि होगा। पसी काल में इन्द्रराजा नामक प्राचार्य के शिष्य वीराङ्गद नामक अन्तिम साधु, सर्वत्रो नाम को आयिका, अग्गिल नामक उत्कृष्ट श्रावक और पंगुसेना नाम की प्राविका होगो । पश्चमकाल के अन्त में तीन वर्ष, ८ माह और एक पक्ष अवशिष्ट रहने पर उस कल्कि द्वारा पूर्वोक्त प्रकार मुनिराज के हस्तपुट का प्रथम ग्रास शुल्क स्वरूप ग्रहण किया जाएगा। तब वे चारों तीन दिन के सन्यास पूर्वक कातिक बड़ी अमावस्या को स्वाति नक्षत्र एवं पूर्वाह्न काल में मरण को प्राप्त हो सौधर्म स्वर्ग में नि तो एक सागर आयु के घारी और शेष तीनों साधिक एक पल्य की आयु के धारी पत्पन्न होंगे। उसी दिन आदि मध्य और अन्त में कम से धर्म, राजा एवं अग्नि का नाश हो जाएगा इसलिए उसके बाद मनुष्य मत्स्यादि का भक्षण करने वाले और नग्न होंगे ।। ८५७ से ८६१ ॥
१ कातिकमासेमावस्यायों ( २०, ५० ).