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________________ बिलोकसार पाया। ३६७ अन्तराम इस प्रकार कम से जाते हुए १४ वें अन्तराल के मागे १५ वाँ अभ्यन्तर पथ व्यास है। इस प्रकार इन पन्द्रह पथ व्यासों में १५ उदय स्थान हैं। उनमें समुद्र सम्बन्धी प्रथम व्यास में जो उदय स्थान है वह दक्षिणायन सम्बन्धी ही है, अतः ग्राह्य नहीं है। इस प्रकार चन्द्रमा के उत्तरायण संबंधी समुद्रचारक्षेत्र में ९ और द्वीप चारक्षेत्र में ५ अर्थात कुल १४ उदय स्थान है। यहाँ सूर्य और चन्द्रमा के उत्तरायण सम्बन्धी उदय विभाग मूल सूत्र कर्ता ने नहीं कहे। तथापि संस्कृत टीकाकार ने दक्षिणायन के उदय मार्गानुसार ही विचार कर कथन किया है। इदानीं दक्षिणोत्तरोधिरेपु समतापस्य क्षेत्रविभागमाह दागिरिमझिायो जावय लवणुवहिबहभागो दु । हेट्ठा अट्टरसमया उपरि सयजोयणा ताओ ॥ ३९७ ॥ मन्दरगिरिमध्यात यावत लवणोदधिषष्ठभागस्तु। अधस्तनो अष्टादशशतानि सपरि शस्योजनानि तापः ॥ ३६७ ॥ मंदा । पम्पन्सरवीपी स्थितस्य सूर्यस्य जम्बूद्वीपासे ५०००० द्वीपचारक्षेत्र १८० मपनीत दिवं ४६८२० मन्दरमध्यावारम्य अभ्यन्तरवोधीपर्यन्तं उत्तरतापं चितुः। लवणोधि २००००० षभिभक्त्वा ३३३३३ शेष पत्र द्वीपचारक्षेत्रे १८. मेलने ३३५१३ शे; अभ्यन्तरबीच्याः प्रारम्भ लवरणसमुद्रषष्ठभापपर्यन्तं दक्षिणतापं विदुः । सूर्यबिम्बावस्ताविशतानि १८०० योजनानि प्रषस्तापं विदुः । तद्विम्भस्योपरि शतपोजमानि अर्घतापं विदुः ॥ ३६७ ॥ दक्षिण, उत्तर, ऊर्च और अधः स्थानों में सूर्य के आताप क्षेत्र के विभाग का निरूपण करते हैं : गाथार्थ :-सूर्य का ताप सुदर्शन मेरु के मध्य भाग से लेकर लवण समुद्र के अवें भाग पर्यन्त फैलता है, तथा नीचे अठारह सौ ( १८०) योजन और ऊपर सौ (१०० ) योजन पर्यन्त फैलता है ।। ३९७ ॥ विशेषार्ग :--अभ्यन्तर वोथी में स्थित सूर्य की अपेक्षा कयन-जम्बूद्वीप के झ्यास का अर्थ भाग ५० हजार योजन है। इसमें से द्वीप सम्बन्धी चारोत्र का प्रमाण १८० योजन घटा देने पर ( ५००००-१५० -४६८२० योजन अवशेष रहा, अतः मेरु पर्वत के मध्य से लगाकर अम्मन्तर वीथी पर्यन्त उत्तर दिशा में सूर्य का आताप ४६८२० योजन ( १६९२८०.०० मील ) दूर तक फैलता है।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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