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त्रिलोकसार
गाथा : १५४-१५५
प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशामें ४९ और विदिशा में ४८ श्रेणीबद्ध है। प्रथम पृथ्वी के अन्तिम पल की दिशा में ३७ और विदिशा में ३६ श्रेणीबद्ध हैं । द्वितीय पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा ३६ और विदिशा में ३५ श्रेणीबद्ध हैं । द्वितीय पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में २६ और विदिशा में २५ श्रेणीबद्ध हैं। तृतीय पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा में २५ और विदिशा में २४ श्रेणीबद्ध हैं। तृतीय पृथ्वी के अन्तिम पटल को दिशा में १७ ओर विदिशा में १६ श्रेणीबद्ध हैं । चतुर्थं पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा में १६ और विदिशा में १५ श्रेणीबद्ध हैं । चतुथं पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में १० और विदिशा में ६ श्रीबद्ध है। पंचम पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशामें ९ और विदिशा में गीबद्ध हैं। पंचम पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में ५ और विदिशा में ४ श्रेणीबद्ध हैं । ष्ठ पृथ्वी के प्रथम पटल की दिशा में ४ और विदिशा में ३ श्रेणीबद्ध हैं । पद्म पृथ्वी के अन्तिम पटल की दिशा में २ और विदिशा में १ श्रीबद्ध हैं । समम पृथ्वी में एक ही पटल है, और उसको एक एक दिशा में एक एक ही श्र ेणीव बिल हैं, तथा विदिशाओं में श्री गीबद्ध बिलों का अभाव है।
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अथ ताविन्द्रक मंज्ञां गाथापट नाह
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सीमंत गिरवतुमंद्रियाय संतो तदोष असंतो वीतो मम तत्थो || १५४ ॥ afrat Tehara होदि अवकतणाम विक्कंती | पढमे तदगो बणगो मणगो खड़ा खडिगा || १४५ ।। जिकमा जिभिगमण्णातो लोलिगलोलवत्थथणलोलो । चिदिए तो तविदो तो तावणणिदाहा य ।। १५६ ।।
उज्जलिदो पज्जलिदो संजलिदो संपजलिदणामा य । नदिए भारा मारा नारा चच्चाय तमगी य ॥ १५७ ॥ घडाघडा चन्थे तमगा भ्रममा य मग अंद्धिदा । तिमिसाय पंचमे हिमवलललगित ॥ १५८ ॥
मीमन्तनिर रौरव भ्रान्तोदभ्रान्तेन्द्रकाः च सम्भ्रान्तः । ततोऽपि असम्भ्रान्तः विभ्रान्तः नवमः स्तः ।। १५४ ।। त्रसितो व क्रान्ताख्यः भवति अवक्रान्तनाम विक्रान्तः । प्रथमायां ततः स्तनकः वनकः मनकः खड़ा खटिका || १५५१ | जिह्वा जिह्निसंज्ञा ततो कोकिलोलवतास्तनलोलाः । द्वितीयायां तमः नपितः तपनः तापननिदाघ च ॥ १५६ ॥
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