SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माया। १५२ . जोकमानास्माधिकार १५ पण । एमप्रमापृथ्वीमारभ्य पञ्चमभुवः शिचतुषमागपत प्रामुष्णं पञ्चमभुवाच मागे पाषा सप्तम्या व भुवि भस्थतिमीतम् ॥१२॥ उन पृथिवयों में अति शीत और अति उष्ण का विभाग कहते हैं : गायार्थ:-रत्नप्रभा पृथ्वी से पांचवीं पृथ्वी के तीन चौथाई भाग पर्यन्त अति उष्ण वेदना और पांचवीं पृथ्वी के शेष एक चौथाई भाग में तथा छठी और सातवीं पृथ्वोमें अतिशय शीतवेदना है ॥१५२।। विशेषा:- रस्नप्रभा पृथ्वी से पाचवीं धूमप्रभा पृथ्वी के तीन वटे चार भाग (209080x4 ) अर्थात् ३७००००० + २५०७४.०+१५००००० + १०००.००+२२५००० = २२५०.० ( बयासी लाख पञ्चीस हजार ) चिलो पर्यन्त अति उष्ण वेदना है और पांचवीं पृथ्वी के शेष एक बटे चार भाग ( 42940x2 ) से सातवी पृथ्वी पयन्त अर्थात् ७५.०० + ९९९९५+५=१.७५००० (एक लाख पिचहत्तर हजार । बिलों में अत्यन्त शीतवेदना है। अथ मास्चिन्द्रकश्रेणीबद्धसंख्यामाह तेरादि दुहीणिदय सेढीबद्धा दिसासु विदिसासु । उणवण्णडदालादी एककेकेणूणषा कमसो ।।१५३॥ त्रयोदशाद्या विहाना इन्द्रकाः भणीनदा दिशासु विदिशासु । एकोनपश्चाशदष्टचत्वारिंशादि एकैकेन न्यूना: क्रमशः ॥१५॥ तेरावि । प्रयोगशाखा लिहीना इन्धकाः घणीवया विज्ञासु विदिशासु यथासंपमेकीनपशाशयपचारिशवावि पटलं पटलं प्रत्येक केन पूनाः क्रमशः ॥१५३॥ उन पृथ्विया के इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिलों को संख्या कहते हैं गाथा:- तेरह को आदि करके प्रत्येक पृथ्वी में उत्तरोत्तर दो दो हीन इन्द्रक विल है तथा श्रेणीबद्ध बिल दिया और विदिशा में कमशः ४६ और ४८ से प्रारम्भ होकर प्रत्येक पटल प्रति एक एक हीन होते गए हैं ।।१५३॥ विशेषार्थ:--प्रथम पृथ्वी में सर्व इन्द्रक बिल तेरह है । शेष छह पृथ्वि यों में वे क्रमशः दो दो हीन होते गये हैं । ११.९,७,५, ३, १ । । इस प्रकार सर्व इन्द्र र ४६ हैं । एक एक पटल में एक एक इन्द्रक बिल हैं, अत: पटल भी ४९ ही हैं। प्रथम पृथ्वी के प्रथम पटल की एक एक दिशा में उनचास उनचास ( ४९, ४९ ) श्रेणीबद्ध बिल, और एक एक विदिशा में अड़तालोस, अक्षतालोस ( ४८, ४८ ) श्रेणीव बिल हैं, तथा द्वितीयादि पटल से सप्तम पृथ्वी के अन्तिम पटल पर्यन्त एक एक दिशा एवं विदिशा में क्रमशः एक एक घटते हुए श्रेणीबद्ध बिल है, अतः सप्तम पृथ्वी के पटल की दिशाओं में वो एक एक श्रेणीबद्ध है किन्तु विदिशाओं में उनका प्रभाव है।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy