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त्रिलोकसार
गाथा : १५१-१५२ ससम । सप्तमक्षिसिबहुमध्ये बिलानि शेषातु पाइलमागपर्यन्तं प्रय परिप सहनयोजन बर्जविस्वा पटलक्रमेण भवन्ति ॥१५॥
उन पृवियों में स्थित पटलों का स्थान कहते है -
गापार्ष:-सप्तम पृथ्वी के बहमध्य भाग में दिल हैं तथा अवशेष पांच पृध्वियों एवं प्रथम पृथ्वी के अब्बहल भाग पर्यन्त नीचे व ऊपर एक एक हजार मोजन छोड़कर पटलों के कम से बिल पाए जाते हैं ॥१५॥
विशेषार्थ:-सातवीं पृथ्वी आठ हजार योजन मोटी है । इसमें ऊपर और नीचे बहत मोटाई छोड़कर मात्र बीच में बिल है। किन्तु, अन्य पाँच पृध्वियों में और प्रथम पृथ्वी के मब्बहल भाग में नीचे ऊपर की एक एक हजार योजन मोटाई छोड़कर बीच में जितने जितने पटल बने हैं, उनमें अनुकम से बिल पाए जाते हैं । अथ प्रथमादीनां बिलसंख्यामाह.
सीसं पाणुवीमं पण्णरसं दम तिपिण पंचहीणेक्कं । लक्खं सुद्धं पञ्च य पुढत्रीसु कमेण णिरयाणि ॥१५१।। त्रिशत् पञ्चविंशतिः पञ्चदश दश त्रीणि पञ्चहीनेकम् ।
लक्ष शुद्ध पञ्च च पृथ्वोपु क्रमेण निरयाणि ।।१५।। तोस । त्रिशात पविशतिः पञ्चश श त्रीणि पञ्चहीमेक एतत्सर्व समं शुग पञ्च पृथ्वी कमेण निरमारिण विलानि इस्पर्थः ॥११॥
प्रथमादि पृध्वियों में बिलों की संख्या -
गाघार्थ:-छह पृश्चियों में क्रमश: तीम दाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दश लाख, तीन लाख और पांच कम एक लाख बिल है नथा सातवी पृथ्वी में शुद्ध अर्थात लक्ष विशेषण रहित केवल पाँच दिल ही हैं ॥१५॥
विशेषा:-प्रथम नरक में ३०००।००, दूसरे में २५०००००, सीमरे में १५०००००, चौधे में १००००००, पाँच में 1000००, टेमें पाँच कम एक लाख और सातवें नरक में पांच बिल है। अथ तास्वतिशीतोष्णविभागमाह
रयणप्पहपूढधीदो पंचमतिचउत्थओचि पदिउण्डं । पन्धमतुरिए छह सत्चमिए होदि भदिनीदं ॥१५२।।
रत्नप्रभापृथ्वीतः पञ्चमतिघउत्थ मोत्ति अदिउन्ह । पञ्चमतुरीये षष्ठयां ससम्मा भवति अतिणीतम् ॥१५॥