SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 710
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिलोकसार . पाषा: ८६४-६५ उस काल में स्थित जीवों के गति में गमनागमन का स्वरूप कहते है-- गाथा:-यहां से मरे हुए जीव नरक तियंञ्च इन दोनों गतियों में जाएंगे, अन्यत्र नहीं। नरक और नियंश्च . गति से झागत जीवों का ही यहाँ जन्म होगा. अन्य का नहीं । इस काल में मेष बहुत थोड़ा जल देंगे, पृथ्वी सारभूत पदार्थों से रहित होगी और मनुष्य तीन कषायी होंगे || ६६३ ।। इदानी अतिदुःषमचरमवतनाक्रमं गाथाचतुष्टयेनाह संवत्तयणामणिलो गिरितरुभूपनदि चुण्णणं करिय । भमदि दिसंत जीवा मरंति मुच्छति बढते ।। ८६४ ।। सम्वतंकनामानिल: गिरितभूप्रभृतीनां चूर्ण कृत्वा । भ्रमति दिशान्तं जीवा म्रियन्ते मूछन्ति षष्ठान्ते ॥ ८६४ ॥ संघसय । सम्वतंकनामानिल: षकालान्ते गिरितभूप्रभतीना चूर्णनं कृत्वा विशान्तं भ्रमति । तनस्था जोवा मूर्यन्ति नियन्ते च ॥ ८६४ ।। ___ अब अतिदुःषमा काल के अन्त में होने वाली वर्तना के क्रम को चार गाथाओं द्वारा कहते हैं गापा-छुटे काल के अन्त में संवतंक नाम की वाय पर्वत, वृक्ष और पृथ्वी आदि का चूर्ण करती हुई ( स्वक्षेत्र अपेक्षा ) दिशाओं के अन्त पर्यन्त भ्रमण करती है, जिससे जीव मूछित हो जाते है और मर जाते हैं ।। ८६४ || विशेषार्प:-छठे काल के अन्त में संवतंक नाम की वायु, पर्वत, वृक्ष और भूमि आदि का चूर्ण करती हुई दिशाओं के मन्त पर्यन्त भ्रमण करती है जिससे वहाँ स्थित जीव मूछित हो जाते है और कुछ मर भी जाते हैं। खगगिरिगंगदुवेदी खुद्दविलादि विसंति आमण्णा | णति दया खचरसुरा मणुस्सजुगलादिबहुजीधे ।। ८६५ ।। खगनिरिगङ्गादयवेदी क्षुद्रविलादि विशन्ति मासना।। नयन्ति व्याः स्युचरासुराः मनुष्य युगलागिबहुजीवान् ।।८६५।। लग। विनयापंगासिन्धूनां देवो तस्थुवबिलाधिक तपासनाः प्रापिनो विशति सक्याः साराः सुराश्च मनुध्ययुगलारिवहजोवान् नयन्ति च ॥ १६५ ।। गाचार्य :-विजयापर्वत, गङ्गमा सिन्धु को वेदी और क्षुद्र बिल आदि के निकट रहने वाले जीव इनमें स्वयं प्रवेश कर जाते हैं तथा दयावान विद्याधर और देव मनुष्य युगलों को मादि कर बहत से जीवों को वहाँ ले जाते हैं ।। ८६५ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy