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________________ त्रिलोकसार पापा । ६७१-६७२-६७३ अप तद्वक्षाराणामुपरिस्थदेवाना वीसदिवक्खाराणं सिहरे तत्सद्विसेसणामसुरा । चिट्ठति तण्णगाणं पूह कंचणवेदियावणेहि जुदा ।।६७१।। विशतिवक्षाराणां शिखरे तत्तद्विशेषनामसुराः । तिष्ठन्ति तन्नगानां पृथक् काश्चनवेदिकावन। युताः ॥६७१॥ धोस । गजवन्तसहितविंशतिवाराणो शिखरे तक्षारपतनामानः सुरास्तिन्ति। ते च नगाः पृषक पृथक् काञ्चनवेविकाभिवनश्च युक्ताः ॥ ६ ॥ उन बछार पर्वतों पर स्थित देवों के सम्बन्ध में कहते हैं गाथार्थ:-चार गज दन्त पर्वत और १६ वक्षार पर्वत, कुल २० पर्वतों के शिखरों पर अपने अपने पर्वत के नामधारी देव रहते हैं। वे पर्वत पृथक पृथक स्वर्णमय वेदियों और वनों से संयुक्त हैं ॥ ६७१ ॥ इदानी देवारण्याना स्थानमाह पन्यवरविदेईते सीतद् दुतडेसु देवरण्णाणि । चारि लवणुवहिपासे तम्सेदी भद्दसालसमा ॥६७२।। पूर्वापरविदेहान्ते सीताद्वयोः द्वितटेषु देवारण्यानि । चत्वारि लवणोदधिपाझे तद्वेदो भद्रसाल समा।। ६७२ ।। पुरख । पूर्वापरविदेहान्ते सीतासोतोक्योक्तिरेषु धेधारण्यानि पत्यारि सन्ति । यथा पूर्वापरभद्रशालविका निषषनौलो स्पृष्ट्वा तिष्ठति तथा लवणोदषिपार्वे देवारपवेविकापि ॥ ६७२ ॥ अब देवारम्य वनों का स्थान कहते हैं-- गाथा:-पूर्व और अपर विदेह के अन्त में सोता और सीतोदा नदी के दक्षिण और उत्तर दोनों तटों पर चार देवारण्य वन हैं । जिस प्रकार पूर्व, पश्चिम भद्रशाल की वेदी निषध और नील पर्वत को स्पा करती है, उसी प्रकार लवण समुद्र के निकट देवारण्य की वेदी निषष और नील कुलाचलों को स्पर्श करती है ।। ६७२ ॥ साम्प्रत तदरम्पवृक्षादिकमाह जंबीरजंबुकेलीफेंकेली मल्लियलिपहदीहि । बहुदेवसरोवावीपासादगिहेहिं जुचाणि ॥ ६७३ ।। जम्बीरजम्बूकदलीकङ्कलिलमल्लिबल्लिप्रभृतिभिः। बहुदेवसरोवापीप्रासादय है: युक्तानि ॥ ६७३ ।।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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