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________________ २६६ त्रिलोकसार गाया : ३२० लवणं । लवणसमुद्रः वारुणिवरक्षीरवरघृतवरा इति त्रयश्चेति चत्वार: कालदेवकपुष्करवशन्तिमस्वयम्भूरमण समुद्रा इति प्रयश्च यथासंख्येन प्रत्येकजलस्वावयः स्वनामानुगुणस्थावव इत्यर्थः जलस्वावथः । श्रवशिष्टाः प्रसंख्यातसमुद्रा क्षुरसस्वादयो भवन्ति ॥ ३१६ ।। समुद्रों के रस विशेष गुड़ों कहते हैं। गाथा :- लवण समुद्र और वारुणी वर आदि तीन समुद्रों के जल का स्वाद अपने अपने नाम सदृश है । कालोदक आदि दो और अन्तिम स्वयम्भूरमण ( इन तीन ) समुद्रों के जल का स्वाद जल सहश है, तथा अवशेष समुद्रों के जल का स्वाद इक्षु रस के स्वाद सदृश है ।। ३१६ ।। विशेषा:- प्रथम लवण समुद्र, चतुर्थ वारूणीवर समुद्र, पांचवां क्षीरवर और छठव घृतवर समुद्र इन चार समुद्रों के जल का स्वाद अपने अपने नाम के अनुसार ही है। फालोदक ( दूसरा ), तीसरा पुष्करवर और अन्तिम स्वयम्भूरमण इन तीन समुद्रों के जल का खाद जल सहया है, तथा शेष समुद्रों के जल का स्वाद इक्षुरस के सदृश है । अथ तेषु जीवानां सम्भवासम्भव सकारगामाह- जलयरजीवा लवणे काले यतिमभूरमणे य । कम्ममोपविण हि सेसे जलयरा जीवा || ३२० ।। जलचरजीवा लवणे कालेऽन्तिमस्वयम्भुरमणे च कर्म महीप्रतिबद्ध न हि शेषे जलचरा जीवा ।। ३२० ।। जलयर। जलचरजीवा लवणसमुझे कालोबकसमुद्र प्रतिमस्वयम्भूश्मलसमुद्र कर्ममहो प्रतिबद्धत्वादति । शेषेषु न हि जलचरा जोषाः ॥ ३२० ॥ समस्त समुद्रों में जलचर जीवों का सम्भव असम्भवपना कारण सहित कहते हैं :--- गाथायें :- लवण समुद्र, कालोदक समुद्र और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र में जलचर जोच पाये जाते हैं, क्योंकि ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी हैं। शेषं समुद्रों में जलचर जीव नहीं होते ।। ३२० ।। विशेषार्थ : – कर्मभूमि से सम्बन्ध होने के कारण लवण समुद्र, कालोदक समुद्र और अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र में जलचर जीव पाये जाते हैं। भोग भूमि में जलचर जीव नहीं होते और शेष समुद्र भांगभूमि सम्बन्धी है, अतः उनमें जलचर जीव नहीं पाये जाते । झं
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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