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________________ त्रिलोकसार पाथा : ११३-११४ पूर्वगाथर्यवोक्ता पानिका उदयदलं आयामं वासं पुवावरेण भूमिमहे । सचेकपंचएक्क य रज्जू मजाम्हि हाणिचयं ॥११३॥ उदयदलं आयामः व्यास: पूर्वापरेण भूमिमुखे । सप्तकं पञ्चक च रज्जुः मध्ये हानि चयम् ॥११३।। उदय । उदय १४ बलं ७ प्रायामः पक्षिणोत्तरम्यास इत्यर्थः । पूर्वापरहानिचयकथनात चतुर्दशरसेषपर्यन्तमायाम: सर्वत्र सप्तरज्जुरेवेति ज्ञातव्यं । पूर्वापरेण ध्यासस्तु भूमो मुते च यथासंख्यं सप्तरजपः भू ७ एका रस्छुः मु१ पनरज्जवः मू५ एका रज्जुः मु१ तपोमुखमूम्योमध्ये हानिकयौ साध्यौ ॥११३॥ लोक पूर्व गाथा द्वारा ही कही हुई पातनिका :--- गापा:-लोक का उदय ( ऊंचाई ) १४ राजू प्रमाण है, उसका आयाम उदय का अर्धभाग - राजू प्रमाण है । अर्थात् दक्षिणोत्तर व्यास ७ राजू है। पूर्व पश्चिम व्यास भूमि मुख में मान, एक और पांच, एक राजू है । तथा मध्य में हानिचय स्वरूप है ॥११३।। विशेषार्थ:-लोक की ऊँचाई चौदह राजू प्रमाण है। इसका आधा (21) ७ राजू प्रमाण दक्षिणोत्तर आयाम अर्थात् चौड़ाई है। दक्षिणोत्तर दिशा में लोक के अधोभाग में ऊपर नौदह राजू ऊंचाई पर्यन्त लोक सर्वत्र ७ राजू चौड़ा है, कहीं भी होनाधिक नहीं है। पूर्व पश्चिम दिशाओं का व्यास अध व मध्य लोक में कम से भूमि ७ राजू, मुस्ख १ राजू तथा ऊर्ध्व लोक के मध्य में भूमि ५ राजू और मुख अषः एवं शिखर पर एक राजू प्रमाण है। इन दोनों ( मुख और भूमि ) के बीच में हानि और वृद्धि चय को साधना चाहिए। आदि प्रमाण का नाम भूमि, अन्त प्रमाण का नाम मुख तथा घटने का नाम हानि और क्रम से बढ़ने का नाम चय है। अथ तत्साधनप्रकारं कथयन्नाह मुहभूमीण विसेसे उदयहिंद भूमहादु हाणिचयं । जोगदले पदगुणिदे फलं घणो वेधगुणिदफलं ।।११४।। मुखभूम्योः विशेष उदयहित भूमुखतः हानिचयं । योगदले पदगुरिणते फलं घनो वेश्चमुरिणतफलम् ॥११४।। मुह । भूमौ ७ मुखं १ होनं कृत्वा ६ सप्तरज्जूदयस्य पदरज्जुहानी एकरज्जूतपस्य कियती हानिरिति सम्पात्य तवानि समावेनन सप्त रज्ज्यायामे, स्फेटयेत् । पुनस्तहानिमेव तत्रावशिष्ट
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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